________________
बन्धाधिकार
बन्धका लक्षण
पुद्गलानां यदादानं योग्यानां सकषायतः ।
योगतः स मतो बन्धो जीवास्वातन्त्र्य-कारणम् ॥१॥ __'योग्य पुद्गलोंका कषाययोगसे-कषायसहित मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिसे-जो ग्रहण है उसको 'बन्ध' माना गया है, जो कि जीवको अस्वतन्त्रता-पराधीनताका कारण है।'
व्याख्या-बन्धके इस लक्षणमें मन-वचन-कायकी कषायरूप-प्रवृत्तिसे जिन पुद्गलोंके ग्रहणका विधान है उनके लिए 'योग्य' विशेषणका प्रयोग किया गया है, जिसका यह आशय है कि बन्धके लिए सभी प्रकारके पुद्गल बन्धके योग्य नहीं होते, जो कार्माण-वर्गणाके रूपमें परिणत होकर जीवके साथ बन्धको प्राप्त हो सकते हैं वे ही पुद्गल ग्रहण-योग्य कहलाते हैं। यहाँ 'ग्रहण' अर्थ में प्रयुक्त हुआ 'आदान' शब्द आम्रवके आगमनार्थसे भिन्न आकर ठहरनेरूप अर्थका वाचक है । यह ठहरना कषायके योगसे होता है, जोकि कोंकी स्थिति और अनुभागका कारण है। जीव-प्रदेशोंमें पुद्गलकर्म के प्रदेशोंका आकर जो यह एक क्षेत्रावगाहरूप अवस्थान है-संश्लेष है-उसको 'बन्ध' कहते हैं। यह बन्ध, चाहे शुभ हो या अशुभ, जीवकी स्वतन्त्रताका हरण कर उसे पराधीन बनाता है।
प्रकृति-स्थित्यादिके भेदसे कर्मबन्धके चार भेद प्रकृतिश्च स्थिति यः प्रदेशोऽनुभवः परः ।
चतुर्धा कर्मणो वन्धो दुःखोदय-निबन्धनम् ॥२॥ 'कर्मका बन्ध प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभागके भेदसे चार प्रकारका जानना चाहिए, जो कि ( आत्मामें ) दुःखके उदयका कारण है।'
व्याख्या-बन्धके चार मूल-भेदोंका नामोल्लेख करके समूचे बन्धको यहाँ दुःखोत्पत्तिका कारण बतलाया है। सांसारिक सुख भी उस दुःखमें शामिल है; जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है। बन्ध जीवकी स्वतन्त्रताका हरण कर उसे पराधीनता प्रदान करनेवाला है और 'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं' यह लोकोक्ति बन्धको दुःखकारक बतलानेके लिए सुप्रसिद्ध है।
चारों बन्धोंका सामान्य रूप निसर्गः प्रकृतिस्तत्र स्थितिः कालावधारणम् । सुसंक्लिप्तिः (क्लुप्तिः) प्रदेशोऽस्ति विपाकोऽनुभवः पुनः ॥३॥
१. मु जीवस्वातन्त्र्यकारणं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org .