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पद्य ३८-४० ]
आसूवाधिकार
शुद्ध-स्वात्माकी उपलब्धि किसे होती है
मिथ्याज्ञान- निविष्ट-योग- जनिताः संकल्पना भूरिशः संसार भ्रमकारिक समितेरावर्जने या क्षमाः । त्यज्यन्ते स्व-परान्तरं गतवता निःशेषतो येन तास्तेनात्मा विगता-ष्टकर्म - विकृतिः संप्राप्यते तत्त्वतः ||४०||
इति श्रीमदमितगति - निःसंगयोगिराज विरचिते योगसारप्राभृते आस्रवाधिकारः ॥ ३॥
'मिथ्याज्ञानपर आधारित-योंगोंसे उत्पन्न हुई जो बहुत-सी कल्पनाएँ-वृत्तियाँ संसारभ्रमण करानेवाले कर्मसमूहके आस्रवमें समर्थ हैं वे स्व-परके भेदको पूर्णतः जाननेवाले जिस ( योगी ) के द्वारा पूरी तरह त्यागी जाती हैं उसके द्वारा वस्तुतः आठों कर्मों की विकृतिसे रहित (शुद्ध) आत्मा प्राप्त किया जाता है— कर्मों के सारे विकारसे रहित विविक्त आत्माकी उपलब्धि उसी योगीको होती है जो उक्त योगजनित कल्पनाओं एवं कर्मास्रव-मूलक वृत्तियोंका पूर्णतः त्याग करता है ।'
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व्याख्या - यह इस आस्रवाधिकारका उपसंहार-पद्य है, जिसमें चौथे योग जनित आस्रव-हेतुओं का दिग्दर्शन कराते हुए यह सूचन किया है कि मिथ्याज्ञानपर अपना आधार रखनेवाली मन-वचन-कायरूप त्रियोगोंकी कल्पनाएँ-प्रवृत्तियाँ बहुत अधिक हैं और वे सभी संसारमें इस जीवको भ्रमण करानेवाले कर्म-समूह के आस्रवमें समर्थ हैं । जिस स्व- पर भेद विज्ञानी योगीके द्वारा वे सब मन-वचन-कायकी प्रवृत्तियाँ त्यागी जाती हैं वह वास्तव में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र और आयु इन आठों कर्मोंके विकारोंसे रहित अपने शुद्धात्माको प्राप्त होता है, जिसे 'विविक्तात्मा' के रूपमें ग्रन्थके शुरू से ही उल्लेखित करते आये हैं और जिसका परिज्ञान तथा प्राप्ति करना ही इस ग्रन्थका एक मात्र लक्ष्य है ।
जिस मिथ्याज्ञानका यहाँ उल्लेख है वह ग्रन्थ में वर्णित 'मिथ्याज्ञानं मतं तत्र मिथ्यात्वसमकायत:' इस वाक्य के अनुसार वह दूषित ज्ञान है जो मिथ्यात्व के सम्बन्धको साथमें लिये हुए होता है । और मिथ्यात्व उसे कहते हैं जिसके कारण ज्ञानमें वस्तुका अन्यथा बोध हो - वस्तु जिस रूप में स्थित है उस रूप में उसका ज्ञान न होकर विपरीतादिके रूपमें जानना बने और जो सारे कर्मरूपी बगीचेको उगानेके लिए जलदानका काम करता है।
इस प्रकार श्री अमितगति निःसंगयोगिराज - विरचित योगसार- प्राभूतमें आस्रवाधिकार नामका तीसरा अधिकार समाप्त हुआ ॥ ३ ॥
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१. अ योगयनिता । २. आ यत्क्षमां । ३. मुज्ञायन्ते । ४. वस्त्वन्यथा परिच्छेदो ज्ञाने संपद्यते यतः । तन्मिथ्यात्वं मतं सद्भिः कर्मारामोदयोदकम् ॥ यो० प्रा० १३ ।
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