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पद्य ३२-३७] आसनाधिकार
७७ उत्पन्न करनेवाली भारी तृष्णाको देनेवाला होता है और इसीलिए उसे भी दुःख समझना चाहिए । हजारों-करोड़ों वर्षों तक जिस सुखको स्वर्गोंमें भोगते हुए तृप्तिकी प्राप्ति ही न होप्यासके रोगीके समान जलपानसे उलटी तृष्णा बढ़े-उसे सुख कैसे कह सकते हैं ? सुख तो तृष्णाके अभावमें है।
इन्द्रियजन्य सुख-दुःख क्यों है ? अनित्यं पीडकं तृष्णा-वर्धकं कर्मकारणम्
शर्माक्षजं पराधीनमशमैव विदुर्जिनाः ॥३५॥ 'जो अस्थिर है, पीडाकारी है, तृष्णावर्धक है, कर्मबन्धका कारण है, पराधीन है उस इन्द्रिय-जन्य सुखको जिनराजोंने असुख ( दुःख ) ही कहा है।'
व्याख्या-पिछले पद्य में जिस इन्द्रियसुखका उल्लेख है उसके कुछ विशेषणोंको इस पद्यमें और स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि वह एक तो क्षणभंगुर है-लगातार स्थिर रहनेवाला नहीं-पीड़ाकारक है-दुःखको साथमें लिये हुए है, तृष्णाको उत्पन्न ही नहीं करता किन्तु उसे बढ़ानेवाला है, कर्मों के आस्रव-बन्धका कारण है और साथ ही स्वाधीन न होकर पराधीन है, इसीसे जिनेन्द्र भगवान उसे वस्तुतः दुःख ही कहते हैं।
सांसारिक सुखको दुःख न माननेवाला अचारित्री सांसारिक सुखं सर्व दुःखतो न विशिष्यते ।
यो नैव बुध्यते मूढः स चारित्री न भण्यते ॥३६।। 'संसारका सारा सुख दुःखसे कोई विशेषता नहीं रखता, जो इस तत्त्वको नहीं समझता वह मूढ चारित्री नहीं कहा जाता-उसे चारित्रवान न समझना चाहिए।'
व्याख्या-इस पद्यमें पूर्वपद्यकी बातको पुष्ट करते हुए सारे ही सांसारिक सुखको वस्तुतः दुःख बतलाया है; उसे दुःखसे अविशिष्ट घोषित किया है और यहाँतक लिखा है कि जो मूढ मिथ्यादृष्टि इस तथ्यको नहीं समझता वह चारित्री-व्रती अथवा संयमी नहीं कहा जाता।
पुण्य-पापका भेद नहीं जाननेवाला चारित्रभ्रष्ट यः पुण्यपापयोमढो विशेष नावबुध्यते ।
स चारित्रपरिभ्रष्टः संसार-परिवधकः ॥३७॥ ( इसी तरह ) जो मूढ पुण्य-पाप दोनोंके विशेष-भेदको अथवा दोनोंमें अविशेषअभेदको नहीं समझता वह चारित्रसे परिभ्रष्ट है और संसारका परिवर्धक है-भवभ्रमण करनेवाला दीर्घ-संसारी है।'
१.मु समक्ष । २. आ विशेषमवबुध्यते ।
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