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योगसार-प्राभृत
[ अधिकार ४ व्याख्या-परद्रव्यगत दोषोंसे तथा इन्द्रिय-विषयोंके संगसे जब वीतरागी ज्ञानी बन्धको प्राप्त नहीं होता तब उन्हें जानता हुआ तो वह बन्धको कैसे प्राप्त होगा.? यह बात यद्यपि पूर्व पद्योंपर-से फलित होती है फिर भी यहाँ उसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यदि विषयोंको जानता हुआ वीतरागी योगी बन्धको प्राप्त होता है तो फिर विश्वका ज्ञाताविश्वके सब पदार्थोकी खुली-ढकी सारी अवस्थाओंको जाननेवाला-केवली भगवान् बन्धको प्राप्त क्यों नहीं होगा ? उसे भी तब बन्धको प्राप्त हो जाना चाहिए । अतः केवल जाननेसे बन्धकी प्राप्ति नहीं होती।
ज्ञानी जानता है वेदता नहीं, अज्ञानी वेदता है जानता नहीं ज्ञानिना सकलं द्रव्यं ज्ञायते वेद्यते न च ।
अज्ञानिना पुनः सर्वे वेद्यते ज्ञायते न च ॥२३॥ 'ज्ञानीके द्वारा समस्त वस्तु-समूह जाना जाता है किन्तु वेदन नहीं किया जाता और अज्ञानीके द्वारा सकल वस्तुसमूह वेदन किया जाता है किन्तु जाना नहीं जाता।'
व्याख्या-पिछले पद्यमें जानने मात्र बन्धके न होने रूप जिस बातका उल्लेख किया है उसके सिद्धान्तको इस पद्यमें दर्शाया है और वह यह है कि ज्ञानी-वीतरागीके द्वारा संपूर्ण द्रव्य-समूह जाना तो जाता है किन्तु वेदन नहीं किया जाता और अज्ञानी सरागीके द्वारा समस्त द्रव्य-समूह वेदन तो किया जाता है परन्तु जाना नहीं जाता।
ज्ञान और वेदनमें स्वरूप-भेद यथावस्तु परिज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिभिरुच्यते ।
राग-द्वेष-मद-क्रोधैः सहितं वेदनं पुनः ॥२४॥ 'जो वस्तु जिस रूपमें स्थित है उसी रूपमें उसके परिज्ञानको ज्ञानियोंके द्वारा 'शान' कहा गया है और जो परिज्ञान (जानना ) राग-द्वेष-मद-क्रोधादि कषायोंसे युक्त है उसका नाम 'वेदन' है।'
व्याख्या-यद्यपि 'ज्ञान' और 'वेदन' दोनों शब्द सामान्यतः जानने रूप एकार्थक हैं परन्तु पूर्व पद्य में ज्ञान और वेदनको शब्द-भेदसे नहीं किन्तु अर्थभेदसे भी भेदरूप उल्लेखित किया है, वह अर्थभेद क्या है उसको बतलानेके लिए ही इस पद्यमें दोनोंका लक्षण दिया है। ज्ञानका लक्षण 'यथावस्तु-परिज्ञान' दिया है, जिसका आशय है बिना किसी मिश्रण अथवा मेल-मिलापके वस्तुका यथावस्थितरूपमें शुद्ध (खालिस ) जानना 'ज्ञान' है और 'वेदन' उस जाननेको कहते हैं जिसके साथमें राग-द्वेष, अहंकार, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सादि विकार भाव मिल जायें। अर्थात् किसी वस्तुके देखते ही इनमें से कोई विकार भाव उत्पन्न हो जाय, उस विकारके साथ जो उसका जानना हैअनुभव है-वह 'वेदन' कहलाता है ।
अज्ञान में ज्ञान और ज्ञानमें अज्ञान-पर्याय नहीं हैं नाज्ञाने ज्ञान-पर्यायाः ज्ञाने नाज्ञानपर्ययाः। न लोहे स्वर्ण-पर्याया न स्वर्णे लोह-पर्ययाः ॥२५॥
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