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योगसार-प्रामृत
[ अधिकार २ (रागादि) भाव कर्मका कर्ता है-कर्मसमूहका निर्माता है यदि ऐसा माना जाय तो फिर जीव कर्मोंका कर्ता कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता। जीव तो अपने (ज्ञानादिरूप) निज-भावको छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं करता-रागादिक जीवके निज भाव न होकर परके निमित्तसे होनेवाले परभाव हैं, अतः जीव वस्तुतः उनका कर्ता नहीं।'
व्याख्या-यहाँ प्रयुक्त हुआ 'भावः' पदरागादिरूप विभाव-भावका वाचक है-स्वभावका नहीं। पिछले पद्यमें जब यह कहा गया है कि रागादिरूप परिणत हुए जीवका आश्रयनिमित्त पाकर पुद्गल ज्ञानावरणादि-कर्मरूप परिणत होते हैं तब उससे यह स्पष्ट फलित होता है कि जीवके रागादिरूप परिणत न होनेपर कर्म उत्पन्न नहीं होते। ऐसी स्थितिमें जीवका रागादिभाव, जो परके सम्पर्कसे उत्पन्न हुआ कर्मकृत विभाव-भाव है, द्रव्यकर्मका कर्ता ठहरा; तब जीवको द्रव्यकर्मका कर्ता कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार जिस प्रकार अग्निसे सन्तप्त हुए घृतने जो जलानेका काम किया वह वस्तुतः घृतका काम नहीं कहा जा सकता, घृतमें प्रविष्ट हुई अग्निका काम है। और इसलिए यहाँ इस बात को स्पष्ट किया गया है कि वास्तव में जीव अपने ज्ञान-दर्शनादि चैतन्यभावको छोड़कर दूसरा कुछ भी नहीं करता । एक कविके शब्दोंमें 'यह दिले बीमारकी सारी खता थी मैं न था' । संसारी जीवोंके साथ रागादिकी जो बीमारी लगी हुई है वही उनसे सब कुछ कर्म कराती है।
कर्मसे भाव और भावसे कर्म इस प्रकार एक दूसरेका कर्तृत्व 'कर्मतो जायते भावो भावतः कर्म सर्वदा।
इत्थं कर्तृत्वमन्योन्यं द्रष्टव्यं भाव-कर्मणोः ॥३३॥ 'कर्मके निमित्तसे सदा रागादिभाव और रागादिभावके निमित्तसे सदा कर्मसमूह उत्पन्न होता है । इस प्रकार रागादिकभावों और कर्मोके परस्पर एक दूसरेका कर्तापना जानना चाहिए।'
__व्याख्या-पिछले २८, २९, ३० नम्बरके पद्योंमें यह स्पष्ट किया जा चुका है कि जीव अपने उपादानसे कर्मका और कर्म अपने उपादानसे जीवका कर्ता नहीं, कर्ता माननेपर बहुत बड़ा दुस्तर दोष उत्पन्न होता है तब निमित्त-नैमित्तिक रूपमें कर्ता कर्मकी व्यवस्था कैसे हो उसे इस पद्य में स्पष्ट किया गया है और वह यह है कि द्रव्यकर्मसे-कमके उदय-निमित्तको पाकर-जीवके रागादिभाव उत्पन्न होता है-जीवत्व या चेतनभाव उत्पन्न नहीं होता और जीवके रागादिभावसे कर्म उत्पन्न होता है-पुद्गल कर्मरूप परिणत होता है न कि पुद्गल द्रव्य उत्पन्न होता है । इस तरह भाव और कर्मका सदा एक-दूसरेके प्रति नैमित्तिक रूपसे कर्तापना है । जीव-पुद्गल-द्रव्योंमें परस्पर एक दूसरेका कोई कर्तापना नहीं है-जीवसे पुद्गल या पुद्गलसे जीव कभी उत्पन्न नहीं होता।
क्रोधादिकृत कर्मको जीवकृत कसे कहा जाता है कोपादिभिः कृतं कर्म जीवेन कृतमुच्यते । पदातिभिर्जितं युद्धं जितं भूपतिना यथा ॥३४॥
१. भावो कम्मणिमित्तो कम्मं पुण भावकारणं हवदि। ण दु तेसि खलु कत्ता ण विणाभूदा दु कत्तारं ।। पञ्चास्ति०६.॥
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