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७० योगसार-प्राभृत
[अधिकार ३ सांसारिक सुख-दुःखसे कभी मुक्त नहीं हो सकता; क्योंकि हम अपने सुख-दुःख-दाता कर्मका निरोध तो कर सकते हैं न करें वैसा कोई कर्म; परन्तु दूसरे करें उन्हें हम कैसे रोक सकते हैं ? जब उन दूसरोंके किये कर्मका फल भी हमें भोगना पड़े तो हमारा सांसारिक सुख-दुःखसे कभी भी छटकारा नहीं हो सकता, और इसलिए कभी भी मक्तिकी प्राप्ति नहीं हो सकती। कर्म-फलका यह सिद्धान्त अज्ञान-मूलक और वस्तु-तत्त्व के विरुद्ध है।
कर्म कैसे जीवका आच्छादक होता है जीवस्याच्छादकं कर्म निर्मलस्य मलीमसम् ।
जायते भास्करस्येव शुद्धस्य धन-मण्डलम् ॥१३॥ 'कर्म जो मल रूप है वह निर्मल जीवात्माका उसी प्रकारसे आच्छादक होता है जिस प्रकार कि घनमण्डल-बादलोंका घटाटोप-निर्मलसूर्यका आच्छादक होता है।'
व्याख्या-जीव स्वभावसे निर्मल है-वस्तुतः सब प्रकारके मलसे रहित है-उसको मलिन करनेवाला एक मात्र कर्ममल है और वह द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म (शरीरादि ) के भेदसे तीन प्रकारका है, जो उसे सब ओरसे उसी प्रकार आच्छादित किये हुए है जिस प्रकार कि घनघोर-घटा निर्मलसूर्यको आच्छादित करती है।
कषाय-सोतसे आया हुआ कर्म जीवमें ठहरता है कषायस्रोतसांगत्य जीवे कर्मावतिष्ठते ।
आगमेनेव पानीयं जाड्य-कारं सरोवरे ॥१४॥ 'जीवमें कषाय-स्रोतसे आकर जडताकारक कर्म उसी प्रकार ठहरता है जिस प्रकार कि सरोवरमें स्रोतरूप नालीके द्वारा आकर शीतकारक जल ठहरता है।'
व्याख्या-यहाँ 'अवतिष्ठते' पदके द्वारा जीवमें कर्मास्रवके साथमें उसके उत्तरवर्ती परिणामका उल्लेख है, जिसे 'बन्ध' कहते हैं और वह प्रायः तभी होता है जब कर्म कषायके स्रोतसे आता है और इसलिए इस पद्यमें साम्परायिक आस्रवका उल्लेख है। जो कर्म कषायके स्रोतसे-साम्परायिक आस्रवके द्वारा नहीं आता वह बन्धको प्राप्त नहीं होता। और साम्परायिक आस्रव उसी जीवके बनता है जो कषाय-सहित होता है-कषाय-रहितके नहीं। कषाय-रहितके योगद्वारसे जो स्थिति-अनुभाग-विहीन सामान्य आस्रव होता है, उसको ईर्यापथ आनव कहते हैं । बन्धका कारण कषाय है, उसीसे "ठिदि अणुभागा कसायदो होंति' इस सिद्धान्तके अनुसार स्थिति तथा अनुभागका बन्ध होता है।
निष्कषाय-जीवके कर्मास्रव माननेपर दोषापत्ति जीवस्य निष्कषायस्य यद्यागच्छति कल्मषम् ।
तदा संपद्यते मुक्तिने कस्यापि कदाचन ॥१॥ 'यदि कषाय-रहित जीवके भी कल्मषका आगमन होता है-कर्मोका साम्परायिक आस्रव बनता है तो फिर किसी भी जीवको कभी मुक्ति नहीं हो सकती।'
१. मु श्रोतसा । २. व्या जाड्यकारे । ३. सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापषयोः।-त० सूत्र ६.४
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