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योगसार-प्राभृत
[अधिकार ३ रहता है। वास्तवमें जीव और कर्मके अपने-अपने गुणोंका कर्तृत्व विद्यमान है-जीव अपने ज्ञानादि गुणोंका और पुद्गलकर्म अपने ज्ञानावरणादि गुणोंका कर्ता है । एकके द्वारा दूसरेके गुणोंका किया जाना जो कहा जाता है वह व्यवहारनयको दृष्टिसे कहा जाता है।'
व्याख्या-ज्ञान-दर्शन-लक्षण जीव पौद्गलिक कर्म के गुण-स्वभावका कर्ता नहीं, और न ( कषाय तथा ज्ञानावरणादिरूप ) पौद्गलिक कर्म जीवके गुण-स्वभावका कर्ता है । केवल एक-दूसरेके परिणामकी उत्पत्ति एक-दूसरेके निमित्तसे होती है-न कि गुणकी। जीव और कर्म दोनों वस्तुतः अपने-अपने गुण-स्वभावके कर्ता हैं । एकको दूसरेके गुण-स्वभावका कर्ता कहना यह व्यवहार-नयकी दृष्टिसे कथन है-व्यवहारनयकी अपेक्षा ऐसा ही कहने में आता है।
पुद्गलापेक्षिक जीवभावोंको उत्पत्ति और औदयिकभावोंकी स्थिति
उत्पद्यन्ते यथा भावाः पुद्गलापक्षयात्मनः ।
तथैवौदयिका भावा विद्यन्ते तदपेक्षया ॥२६॥ 'जिस प्रकार पुदगलको अपेक्षासे-पुद्गलका निमित्त पाकर-जीवके भाव उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार पुद्गलकी अपेक्षासे-पौद्गलिक कोंके उदयका निमित्त पाकर-उत्पन्न हुए औदयिक भाव विद्यमान रहते हैं।'
व्याख्या-इस पद्यमें जीवके गति-कषायादिरूप औदयिक भावोंकी स्थितिका निर्देश है-यह बतलाया है कि जिस प्रकार पुद्गलोंका निमित्त पाकर संसारी जीवके भाव उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार पुद्गलकर्मोंके उदयका निमित्त पाकर उत्पन्न हुए जो जीवके औदयिक भाव हैं वे स्थितिको प्राप्त होते हैं-उत्पन्न होते ही नाशको प्राप्त नहीं होते किन्तु उदयकी स्थितिके अनुसार बने रहते हैं।
निरन्तर रजोग्राही कौन ? कुर्वाणः परमात्मानं सदात्मानं पुनः परम् ।
मिथ्यात्व-मोहित-स्वान्तो रजोग्राही निरन्तरम् ।।२७।। 'जो मिथ्यात्वसे मोहितचित्त हुआ सदा परको आत्मा और आत्माको पर बनाता है वह निरन्तर कर्मरजको संचय करता रहता है।'
व्याख्या-आस्रवके चार कारणोंमें-से मिथ्यादर्शनके कथनका उपसंहार करते हुए इस पद्यमें उक्त मिथ्यादृष्टिको जो मोहके उदयसे मो हत-चित्त हुआ दृष्टिविकारके कारण परकोआत्मा-शरीरादि पर-पदार्थोंको आत्मीय ( अपने ) और आत्माको पर-शरीर तथा कायादि रूप-समझता है, निरन्तर कर्मोंका साम्परायिक आस्रवकर्ता बतलाया है।
कौन स्वपर-विवेकको प्राप्त नहीं होता राग-मत्सर-विद्वेष-लोभ-मोह-मदादिषु । हृषीक-कर्म-नोकर्म-रूप-स्पर्श-रसादिषु ॥२८॥
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