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योगसार-प्राभृत
[ अधिकार ३ स्वदेह-परदेहके अचेतनत्वको न जाननेका फल अचेतनत्वमज्ञात्वा स्वदेह-परदेहयोः ।
स्वकीय-परकीयात्मबुद्धितस्तत्र वर्तते ॥१८॥ '(यह जीव ) स्वदेह और परदेहके अचेतनपनेको न जानकर स्वदेहमें आत्मबुद्धिसे और परदेहमें परकीय आत्मबुद्धिसे प्रवृत्त होता है-अपने शरीरको अपना आत्मा और परके शरीरको परका आत्मा समझकर व्यवहार करता है।'
व्याख्या-अपने देहको अपना आत्मा और स्त्री-पुत्रादि परके देहको परका आत्मा समझकर यह जीव जो प्रवृत्त होता है और उससे अपनेको सुख-दुःख होना मानता है उसका क्या कारण है ? इस प्रश्नके समाधानार्थ ही यह पद्य निर्मित हुआ जान पड़ता है। और वह समाधान है 'अपने देह तथा परदेहके अचेतनत्वको न जानना' । यदि निश्चित-रूपसे यह जाना हो कि मेरा या दूसरे किसी भी जीवका शरीर चेतन नहीं है-जड़ है तो उसमें स्वात्मोय तथा परात्मीय बुद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि आत्मा सबका वस्तुतः चेतनरूप अमूर्तीक है, अचेतन मूर्तीक पदार्थ स्वभावसे उसका अपना नहीं हो सकता-अपना मानना स्वरूप-पररूपकी अनभिज्ञताके कारण भूल है-भ्रान्ति है । इसके मिटनेसे बुद्धिका सुधार होता है और तब कमौका आस्रव सहज ही रुक जाता है।
परमें आत्मीयत्व-बुद्धिका कारण यदात्मीयमनात्मीयं विनश्वरमनश्वरम । सुखदं दुःखदं वेत्ति न चेतनमचेतनम् ॥१६॥ पुत्र-दारादिके द्रव्ये तदात्मीयत्व-शेमुषीमः ।
कर्मास्रवमजानानो विधचे मूढमानसः ॥२०॥ 'जबतक जीव आत्मीय-अनात्मीयको, विनाशीक-अविनाशीकको, सुखदायी-दुःखदायीको और चेतन-अचेतनको नहीं जानता है तबतक कर्मके आस्रवको न जानता हुआ यह मूढ प्राणी पुत्रस्त्री आदि पदार्थोंमें आत्मीयत्वको बुद्धि रखता है उन्हें अपने समझता है।
व्याख्या-पूर्वपद्य-विषयक अज्ञानको इन दोनों पद्योंमें और स्पष्ट करते हुए उसे स्त्रीपुत्रादिमें आत्मीयपनेकी बुद्धिका कारण बतलाया है-लिखा है कि जब यह मोहित चित्त मूढ़प्राणी आत्मीय-अनात्मीयको, विनश्वर-अविनश्वरको, सुखदायी-दुःखदायीको, चेतनअचेत नहीं जानता-इनके स्वरूप-भेदको नहीं पहचानता-तब कोंका आस्रव कैसे होता है इसको भी न जानता हुआ स्त्री-पुत्रादिकमें आत्मीयपनेकी बुद्धिको धारण करता हैउन्हें अपने आत्म-द्रव्यके साथ सम्बद्ध मानता है ।
__ कौन किससे उत्पन्न नहीं होता कपाया नोपयोगेभ्यो नोपयोगाः कषायतः ।
न मूर्तामूर्तयोरस्ति संभवो हि परस्परम् ॥२१॥ १. मु अचेतनत्वमज्ञत्वात् । २. आ तदात्मीयसेमुखी ।
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