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आस्रवाधिकार
आस्रवके सामान्य हेतु शुभाशुभोपयोगेन वासिता योग-वृत्तयः।
सामान्येन प्रजायन्ते दुरितास्रव हेतवः ॥१॥ 'शुभ तथा अशुभ उपयोगके द्वारा-ज्ञान-दर्शनके अच्छे-बुरे रूप परिणमनके निमित्तसेवासनाको प्राप्त अथवा संस्कारित हई जो योगोंकी-मन-वचन-कायकी कर्म-क्रियारूप प्रवत्तियाँ हैं वे सामान्यसे दुरितोंके-शुभाशुभ-कर्मोके-आस्रवकी-आत्मामें आगमन अथवा प्रवेशकी-हेतु होती हैं-कारण पड़ती हैं।' ___ व्याख्या-यहाँ 'योग' शब्द मन-वचन-काय तीनोंके अर्थमें प्रयुक्त हुआ है। तीनों योगोंमें-से किसी भी योगकी क्रिया 'योगवृत्ति' कहलाती है। ये योगवृत्तियाँ जब शुभ या अशुभ किसी भी प्रकारके उपयोगसे-ज्ञान-दर्शनसे-वासित-संस्कारित होती हैं अथवा यों कहिए कि कोई भी प्रकारके ज्ञान-दर्शनकी पुटको साथमें लिये हुए होती हैं तो वे सामान्यरूपसे दुरितास्रवकी हेतु होती हैं। योगवृत्तियोंके उक्त विशेषणसे यह फलित होता है कि यदि वे वृत्तियाँ शुभाशुभ उपयोगसे वासित नहीं तो दुरितास्रवकी हेतु भी नहीं होती।
'दुरित' शब्द आम तौरपर पाप या पापकर्म के अर्थ में प्रयुक्त होता है; परन्तु यहाँ वह कर्ममात्र अथवा आठों प्रकारकी कर्म प्रकृतियोंके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । ग्रन्थ-भरमें यह शब्द कोई आठ स्थानोंपर पाया जाता है और सर्वत्र इसी आशयको लिये हुए है-कर्मविशेष जो पाप उसके आशयको लिये हुए नहीं । इसके पर्याय नाम हैं अघ, कलिल, रजस , एनस , आगस , रेफस , अंहस और पातक, जिन सबका प्रयोग भी ग्रन्थमें दुरितके उक्त आशयको लिये हुए है केवल पापके आशयको लिये हुए नहीं; यद्यपि ये पापके अर्थ में भी प्रयुक्त होते हैं । 'पाप' शब्द ही ग्रन्थ-भर में प्रायः पापकर्मके लिये प्रयुक्त हुआ है। ग्रन्थकारने स्वयं भी आगे चतुर्थ पद्यमें 'दुरितास्रव के स्थानपर 'कर्मास्रव' पदका प्रयोग किया है, जो दुरितके अभिप्रेत कर्म अर्थको स्पष्ट कर देता है। यहाँ मैं इतना और प्रकट कर देना चाहता हूँ कि स्वामी समन्तभद्रने स्वयम्भूस्तोत्रमें-'दुरितमलकलङ्कमष्टकं निरुपम-योगबलेन निर्दहन' इत्यादि वाक्यके द्वारा 'कर्माष्टक'को 'दुरित' शब्दके द्वारा उल्लेखित किया है। अतः ग्रन्थकारका आठों कर्मोके अर्थमें-दुरित शब्दका उक्त प्रयोग बहुत प्राचीन और समीचीन है। वास्तवमें देखा जाय तो सारे ही कर्म पापरूप हैं जो आत्माको बन्धनमें बाँधकर-पराधीन बना कर-उसे संसार-भ्रमण कराते हैं। इसीसे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने समयसारमें पुण्यकर्मको भी सुशील नहीं माना है, जो कि आत्माका संसारमें ही प्रवेश (भव-ग्रहणके रूपमें भ्रमण) कराता रहता है।
१. आ दुरिताश्रव (आगे भी सर्वत्र ‘आश्रव')। २. कह तं होदि सुसीलं जं संसारे पवेसेदि॥१४५॥
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