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योगसार-प्राभृत
[अधिकार २ अजीवतत्त्वको यथार्थ जाने बिना स्वस्वभावोपलब्धि नहीं बनती अजीवतत्त्वं न विदन्ति सम्यग ये' जीवतत्वाद्विधिना विभक्तम् ।
चारित्रवन्तोऽपि न ते लभन्ते विविक्तमात्मानमपास्तदोषम् ॥५०॥ इति श्रीमदमितगति-निःसंगयोगिराज-विरचिते योगसारप्राभृतेऽजीवाधिकारः ॥२॥
'जो लोग उस अजीवतत्त्वको, जो कि जीवतत्त्वसे विधि-द्वारा विभक्त है, यथार्थ रूपसे नहीं जानते हैं वे चारित्रवन्त होते हुए-सम्यक् चारित्रका अनुष्ठान करते हुए भी उस विविक्त-शुद्ध एवं खालिस-आत्माको प्राप्त नहीं होते जो कि दोषोंसे रहित है।'
व्याख्या-इस पद्यमें, अजीवाधिकारका उपसंहार करते हुए, अजीव-तत्त्वके यथार्थ परिज्ञानका महत्त्व ख्यापित किया गया है और वह यह है कि जबतक इस अजीवतत्त्वका यथार्थ परिज्ञान नहीं होता तबतक आत्माको अपने शुद्धरूपको उपलब्धि नहीं होती, चाहे वह कितना भी तपश्चरण क्यों न करे। यहाँ अजीव-तत्त्वका 'जीवतत्त्वाद्विधिना विभक्तं' यह विशेषण अपना खास महत्त्व रखता है और इस बातको सूचित करता है कि अजीवतत्त्व जीव-तत्त्वके निषेधको लिये हुए कोई धर्म नहीं है किन्तु अपने अस्तित्वको ि
को लिये हए एक पृथक तत्त्व है, और वह मुख्यतः वह तत्त्व है जो जीवके साथ एक क्षेत्र-अवगाहरूप होते हुए भी उससे सदा पृथक रहता है और जीवके विभाव-परिणमनमें निमित्तकारण पड़ता है। वह पुद्गलद्रव्य है जो कर्मके रूपमें जीवके साथ उक्त अनादि-सम्बन्धको लिये हुए है और शरीरके रूपमें अनेक स्वजनादिके सम्बन्धको लिये हुए है। उसको ठीक न समझनेसे ही आत्माके स्वरूपमें भ्रान्ति बनी रहती है और इसीसे उसकी उपलब्धि नहीं हो पाती। विविक्तात्माके रूप में स्वरूपकी उपलब्धि ही इस ग्रन्थका मुख्य ध्येय है, जिसे ग्रन्थके मंगलाचरणमें 'स्वस्वभावोपलब्धये' पदके द्वारा व्यक्त किया गया है।
इस प्रकार श्री अमितगति-निःसंगयोगिराज-विरचित-योगसारप्राभृतमें अजीव
अधिकार नामका दूसरा अधिकार समाप्त हुआ ॥२॥
१. मु यो । २. मु चरित्रवन्तोऽपि ।
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