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६२ योगसार-प्राभूत
[अधिकार २ 'जो इन्द्रियोंके द्वारा देखा जाता तथा अनुभव किया जाता है वह कुछ भी रूप मुक्ति-प्राप्त आत्माका नहीं है। इसीसे जिनदेवोंके द्वारा यह सब इन्द्रिय-ग्राह्य-रूप पुद्गलात्मक अचेतन कहा गया है।'
व्याख्या-पिछले पद्यमें जो बात कही गयी है उसीको इस पद्यमें और स्पष्ट किया गया है-लिखा है कि जो कुछ भी रूप इन्द्रियोंके द्वारा देखा जाता या अनुभव किया जाता है वह चूँकि मुक्तिप्राप्त आत्माका कुछ भी रूप नहीं है अतः उस सबको जिनदेवने अचेतन तथा पौद्गलिक कहा है।
राग-द्वेषादि विकार सब कर्मजनित विकाराः सन्ति ये केचिद्राग-द्वेष-मदादयः ।
कर्मजास्तेऽखिला ज्ञेयास्तिग्मांशोरिव मेघजाः॥४६॥ 'आत्माके राग, द्वेष और मद आदिक जो कुछ विकार हैं-विभावपरिणमन हैं-वे सब मेघ-जन्य सूर्यके विकारोंकी तरह कर्म-जनित हैं।'
व्याख्या-३५वें पद्यमें जिन विकारोंका उल्लेख तथा सूचन है वे प्रायः नामकर्मजनित हैं और इस पद्यमें राग-द्वेष-मदके रूपमें जिन विकारोंका उल्लेख है और 'आदयः' पदके द्वारा जिन क्रोध-लोभ-माया-भय-हास्य-रति-अरति-शोक-भय जुगुप्सादि विकारोंका सूचन है वे सब प्रायः मोहनीयकर्म-जनित हैं-कर्मोंके उदयादि-निमित्तोंको पाकर उसी प्रकार आत्मामें उत्पन्न होते हैं जिस प्रकार मेघोंके उदयादि-निमित्तको पाकर सूर्य में विकार उत्पन्न होते हैं। कर्म चूँकि पौद्गलिक तथा अचेतन हैं अतः ये विकार भी पौद्गलिक तथा अचेतन हैं, अचेतन पौद्गलिकसे अचैतन्य पौद्गलिककी ही उत्पत्ति हो सकती है, चेतन तथा अपौद्गलिक आत्म-द्रव्यकी नहीं।
जीव कभी कर्मरूप और कर्म कभी जोवरूप नहीं होता अनादावपि सम्बन्धे जीवस्य सह कर्मणा ।
न जीवो याति कर्मत्वं जीवत्वं कर्म वा स्फुटम् ॥४७॥ 'जीवका कर्मके साथ अनादिकालीन सम्बन्ध होनेपर भी न तो कभी जीव कर्मपनेको प्राप्त होता है-कर्म बनता या कर्मरूप परिणत होता है और न कर्म जीवपनेको प्राप्त होता है-जीव बनता या जीवरूप परिणत होता है, यह स्पष्ट है।'
व्याख्या कितनी ही वस्तुएँ संसारमें ऐसी हैं जो सम्बन्धके कारण एक दूसरे रूप परिणत होती हुई देखने में आती हैं। मोक्षशास्त्रमें भी 'बन्धेऽधिको पारिणामिको च' नामका एक सूत्र है, जिसका आशय है दो गुण अधिक वस्तु दो हीनगुण वस्तुको अपने रूप कर लेती है। परन्तु यह सब पुद्गलके सम्बन्धकी बात है—एक द्रव्यके दूसरे द्रव्यके साथ सम्बन्धकी नहीं । जीव और पुद्गल दोनों अलग-अलग द्रव्य हैं और ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म पौद्गलिक होते हैं। इसीसे जीव तथा कर्मका अनादि सम्बन्ध होते हुए भी न तो जीव कभी कर्मरूप होता और न कर्म कभी जीवरूप ही परिणत होता है--द्रव्यदृष्टिसे दोनोंकी सदा अपनेअपने स्वभावमें व्यवस्थिति रहती है ।
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