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पद्य २-६ ]
आसूवाधिकार
उक्त बुद्धिसे महाकर्मास्रव
तेषु प्रवर्तमानस्य कर्मणामास्रवः परः । कर्मास्रव - निमग्नस्य नोत्तारो जायते ततः ||१४||
'उक्त चेतन-अचेतन रूप पर - पदार्थों में ( आत्मीयत्व मतिरूप ) प्रवृत्तिको प्राप्त जीवके कर्मोंका महान् आस्रव होता रहता है और इसलिए जो कर्मास्रवमें डूबा रहता है उसका उद्धार नहीं बनता ।'
व्याख्या - जो जीव सचेतन तथा अचेतन पर-पदार्थों में उक्त आत्मीयत्व-मतिको लिये हुए प्रवृत्त होता है उसके कर्मोंका बहुत बड़ा आस्रव होता है और जिसे कर्मोंका बहुत बड़ा आस्रव निरन्तर होता रहता है, यहाँतक कि वह उसमें डूबा रहता है, उसका संसारसे उद्धार नहीं होता । संसारसे उद्धार के लिए नये कर्मोंका आना रुकना चाहिए और वह तभी बन सकेगा जबकि इस जीवकी मोहके उदयवश पर पदार्थों में जो अपनेपनको बुद्धि हो रही है वह दूर होगी । मोहने जीवकी दृष्टिमें विकार उत्पन्न कर रखा है, इसीसे जो आत्मीय ( अपना ) नहीं उसे यह भ्रमसे आत्मीय समझ रहा है । इसीसे मोहरूप जो मिथ्यादर्शन है वह कर्मोंके आस्रवका प्रधान हेतु है ।
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एक दूसरी बुद्धि जिससे मिथ्यात्व नहीं छूट पाता
यदं कार्मणं द्रव्यं कारणेऽत्र भवाम्यहम् | यावदेषा मतिस्तावन्मिथ्यात्वं न निवर्तते ॥५॥
'वह कर्मजनित पदार्थसमूह मुझमें है, इसका कारण मैं हूँ, यह बुद्धि जबतक बनी रहती है तबतक मिथ्यात्व - मोह अथवा मिथ्या दर्शन — नहीं छूटता ।
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व्याख्या - इस पद्य में तीसरे पद्यसे भिन्न एक दूसरी मति बुद्धिका उल्लेख है और मिथ्यादर्शनको 'मिथ्यात्व' नामसे उल्लेखित करते हुए लिखा है कि 'यह दृश्यमान कर्मजति पदार्थ शरीरादिक मुझमें हैं - मेरे साथ तादात्म्य-सम्बन्धको प्राप्त हैं — और इनका कारण ( उपादान ) मैं हूँ ऐसी बुद्धि जबतक इस जीवकी बनी रहती है तबतक मिध्यादर्शन दूर होने में नहीं आता । और इसलिए मिथ्यात्व के कारणसे होनेवाला कर्मास्रव बराबर होता रहता है ।
कर्माको हेतुभूत एक तीसरी बुद्धि
आसमस्मि भविष्यामि स्वामी देहादि वस्तुनः । मिथ्या दृष्टेरियं बुद्धिः कर्मागमन - कारिणी || ६ ||
'मिथ्यादृष्टिकी यह बुद्धि कि मैं देहादि बस्तुका पहले स्वामी था, वर्तमानमें हूँ और आगे हूँगा, कर्मो आगमनकी कारणीभूत है-आत्मामें कर्मोंका द्रव्य तथा भावरूप आस्रव करानेवाली है ।'
व्याख्या - इस पद्य में मिध्यात्व-जन्य अथवा मिथ्या दर्शनरूप एक तीसरी बुद्धिका उल्लेख है और वह यह कि 'मैं अमुक देहादि वस्तुका स्वामी था, स्वामी हूँ अथवा स्वामी
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