________________
पद्य ४१-४५]
अजीवाधिकार नात्मा कभी स्पष्ट प्रतीत नहीं होता इसलिए वह चेतनात्मा देहसे भिन्न है; किन्तु अपने ज्ञान-लक्षणसे भिन्न नहीं है।'
___ व्याख्या-इन दोनों पद्यों में से प्रथम पद्यमें विभिन्नताके एक सिद्धान्तका उदाहरणसहित निर्देश किया गया है और दूसरे पद्यमें उसे देह तथा आत्मापर घटित किया गया है। जिस प्रकार रसमें रूप प्रतीयमान (प्रतिभासमान) होते हुए भी वहाँ कभी स्पष्ट प्रतीत (प्रतिभासित ) नहीं होता और इसलिए रससे रूप भिन्न है-रस रसना इन्द्रियका विषय है और रूप चक्षु इन्द्रियका विषय है। उसी प्रकार जीवित शरीरमें जीवात्माके प्रतीयमान होनेपर भी जीवात्मा वहाँ कभी स्पष्ट रूपसे प्रतीत नहीं होता और इसीलिए पौद्गलिक शरीरसे जीवात्मा सर्वथा भिन्न है-शरीर इन्द्रियज्ञान गोचर है जबकि जीवात्मा अपौद्गलिक तथा स्वंसवेद्य है-शरीरसे भिन्न होते हुए भी जीवात्मा अपने ज्ञानलक्षणसे, जो कि उसका आत्मभूत-लक्षण है, कभी भिन्न नहीं होता। ४२वें पद्यमें प्रयुक्त हुआ स्पष्टार्थका वाचक 'स्फुट' विशेषणपद अपनी खास विशेषता रखता है और इस बातको सूचित करता है कि जो जहाँ प्रतीयमान होता है वह वहाँ अस्पष्ट झाँकीके रूपमें होता है, स्पष्ट प्रतीतिका विषय नहीं होता।
जो कुछ इन्द्रियगोचर वह सब आत्मबाह्य
दृश्यते ज्ञायते किंचिद् यदक्षरनुभूयते ।
तत्सर्वमात्मनो बाह्यं विनश्वरमचेतनम् ॥४४॥ __'इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ भी देखा जाता, जाना जाता और अनुभव किया जाता है वह आत्मासे बाह्य, नाशवान् तथा चेतना-रहित है।'
व्याख्या-इस पद्य में इन्द्रियों द्वारा दृष्ट, ज्ञात तथा अनुभूत पदार्थों के विषयमें एक अटल नियमका निर्देश किया गया है, और वह यह कि ऐसे सब पदार्थ एक तो आत्मबाह्य होते हैं-शुद्ध आत्माका कोई गुण या पर्यायरूप नहीं होते, दूसरे विनश्वर-सदा स्थिर न रहनेवाले होते हैं, तीसरे अचेतन होते हैं । इन्द्रियोंका जो कुछ भी विषय है वह सब पौद्गलिक-पुद्गलनिष्पन्न है और पुद्गल आत्मासे बाह्यकी वस्तु है, अचेतन है और पूरण-गलनस्वभावके कारण सदा एक अवस्था में स्थिर रहनेवाला नहीं है। परमाणु-रूपमें पुद्गल इन्द्रियोंका विषय ही नहीं और स्कन्धरूपमें पदगल सदा बनते और बिगड़ते रहते हैं। अतः उक्त नियम एक मात्र पौद्गलिक-द्रव्योंसे सम्बन्ध रखता है-दूसरे कोई भी द्रव्य इन्द्रियोंके विषय नहीं हैं।
इन्द्रियगोचर रूपका स्वरूप न निवृतिं गतस्यास्ति तद्रपं किंचिदात्मनः। अचेतनमिदं प्रोक्तं सर्व पौद्गलिकं जिनैः ॥४॥
१.भा निर्वत्तिगतस्थास्ति । २. भा यद्रपं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org