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पद्य ३८-४०]
अजीवाधिकार व्याख्या-पिछले तीन पद्योंमें तेरह गुणस्थानोंको पौद्गलिक बतलाया है और यह निर्दिष्ट किया है कि वे निश्चय दृष्टिसे जीवरूप नहीं हैं; तब यह प्रश्न पैदा होता है कि प्रमत्त नामक छठे गुणस्थानसे लेकर सयोग-केवली नामक १३वें गुणस्थानों तक, आठ गुणस्थानोंकी जो वन्दना देहकी स्तुति-रूपमें की जाती है उसके द्वारा वे गुणस्थानवर्ती मुनि वन्दित होते हैं या कि नहीं ? यदि वन्दित होते हैं तो देह और जीव दोनों एक ठहरते हैं और यदि बन्दित नहीं होते तो वन्दना मिथ्या एवं व्यर्थ ठहरती है। प्रथम विकल्पका समाधान इस पद्यमें
और दूसरे विकल्पका समाधान उत्तरवर्ती पद्य में किया गया है। इस पद्यमें बतलाया है कि उस वन्दनासे वे गुणस्थानवर्ती चेतनात्मक मुनि वस्तुतः वन्दित नहीं होते हैं। ऐसी वन्दनाका एक रूप समयसार-कलशमें श्रीअमृतचन्द्राचार्य ने इस प्रकार दिया है
कान्त्येव स्नपयन्ति ये दशदिशो धाम्ना निरुन्धन्ति ये धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये। दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरन्तोऽमृतं
वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तोर्थेश्वराः सूरयः ॥२४॥ इसमें बतलाया है जो अपनी कान्तिसे दशों दिशाओंको व्यापकर उन्हें कान्तिमती बनाते हैं, अपने तेजसे महातेजस्वी सूर्गको भी परास्त करते हैं, अपने रूपसे लोगोंके मनको हरते हैं, अपनी दिव्यध्वनिसे सुननेवालोंके कानोंमें साक्षात् सुखामृतकी वर्षा करते हैं और एक हजार आठ (शरीर) लक्षणके धारक हैं, वे तीर्थेश्वर-आचार्य वन्दनीय हैं ।
___ यहाँ वन्दना देहकी स्तुतिको लिये हुए है । ऐसी स्तुतिके सम्बन्धमें श्री कुन्दकुन्दाचार्यने समयसारमें लिखा है कि इस प्रकार जीसे भिन्न पुद्गलात्मक शरीरकी स्तुति करके मुनि यह मानता है कि मेरे द्वारा केवली भगवान स्तुति वन्दना किये गये, जो कि व्यवहार नयकी दृष्टिसे है। निश्चय नयकी दृष्टि से यह कथन ठीक नहीं है; क्योंकि शरीरके जो गुण हैं वे केवलीके गुण नहीं होते, जो केवलीके गुणोंकी स्तुति करता है वही वस्तुतः केवलीकी स्तुति करता है
इणमण्णं जीवादो देहं पुग्गलमयं थुणित्तु मुणी। मण्णदि हु संथुदो वंदिदो मए केवलीभयवं ॥२८॥ तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगृणाहि होंति केवलिणो। केवलिगुणे थुणदि जो सो तच्चं केलि थुणदि ॥२९॥
वन्दनाकी उपयोगिता परं शुभोपयोगाय जायमाना शरीरिणाम् ।
ददाति विविधं पुण्यं संसारसुखकारणम् ॥४०॥ 'किन्तु वह वन्दना उत्कृष्ट शुभोपयोगके लिए निमित्त-भूत हुई प्राणियोंको नाना प्रकारका परमपुण्य प्रदान करती है, जो ऊँचे दर्जेके संसार-सुखोंका कारण होता है।'
व्याख्या--जिन गुणस्थानोंकी वन्दनाका पिछले पद्यमें उल्लेख है वे पद्य नं० ३६, ३७ के अनुसार पौद्गलिक होते हुए भी और उनकी उस बन्दनासे ज्ञानात्मक मुनिवन्दित न होते
१. जदि जोवो ण सरीरं तित्ययरायरिय संथदी चेव । सव्वा वि हवदि मिच्छा तेण दु आदा हवदि देहो ॥२६॥-समयसार ।।
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