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योगसार- प्राभृत
[ अधिकार २
व्याख्या - इन दोनों पद्योंमें तेरह गुणस्थानोंके नाम देकर यह सूचित किया है कि ये सब पौद्गलिक हैं, क्योंकि कर्मप्रकृतियाँ जो कि पौद्गलिक हैं उनके द्वारा निर्मित होते हैं । और इसलिए इन्हें जीव नहीं कहा जा सकता, जो कि नित्य अचेतन रूप हैं जैसा कि समयसारकी निम्नगाथासे प्रकट है
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मोहनकम्मसुदा दु वण्णिया जे इमे गुणट्टाणा । ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता ॥६८॥ उक्त गुणस्थानोंको कौन जीव कहते हैं और कौन नहीं देहचेतनयोरैक्यं मन्यमानैविमोहितैः । एते जीवा निगद्यन्ते न विवेक - विशारदैः ॥ ३८ ॥
'शरीर और आत्मा दोनोंको एक माननेवाले मोही जीवोंके द्वारा ये गुणस्थान जीव कहे जाते हैं किन्तु भेदविज्ञानमें निपुण विवेकी जनोंके द्वारा नहीं - विवेकी जन उन्हें पुद्गलरूप अजीव बतलाते हैं ।'
व्याख्या--उक्त तेरह गुणस्थानोंको कौन जीव कहते हैं और कौन नहीं कहते, इसीका इस पद्य में स्पष्टीकरण किया गया है । अचेतन देह तथा चेतन आत्माको जो एक मानते हैं वे मोही - मिध्यादृष्टि जीव उक्त गुणस्थानोंको जीवरूप मानते हैं, परन्तु जो विवेकी-भेदज्ञानी देहको जड़ पुद्गल रूप और जीवात्माको चेतनरूप अनुभव करते हैं वे इन गुणस्थानोंको जीवरूप नहीं मानते, जो कि पूर्व पद्यानुसार कर्म प्रकृतियोंके उदयादिकसे निर्मित होते हैंजीव में स्वतः स्वभाव से इनके कोई स्थान निर्दिष्ट नहीं हैं, ये सब पुद्गल द्रव्यके परिणाम हैं' । इसीसे निश्चय नयके द्वारा देह तथा जीवको एक नहीं कहा जाता, दोनों को एक कहनेवाला व्यवहार नय है; जैसा कि समयसारकी निम्न गाथासे जाना जाता है
हारणओभासद जीवो देहो य हवदि खलु इक्को ।
ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदापि एकट्ठो ॥२७॥
अतः जो केवल व्यवहारनयावलम्बी हैं वे ही देह तथा जीवको एक मानते हैं, उन्हीं को यहाँ विमोहित - मिध्यादृष्टि कहा गया है और जिनके लिए 'विवेकविशारद' का प्रयोग किया गया है वे निश्चय और व्यवहार दोनों नयोंके स्वरूपको ठीक जाननेवाले भेद-विज्ञानी हैं और इसलिए वे देह तथा जीवको सर्वथा एक नहीं कहते - नयदृष्टिको लेकर कथंचित् एक और कथंचित् अनेक ( भिन्न ) रूपसे दोनोंका प्रतिपादन करते हैं; सर्वथा भिन्न कहना भी उनके द्वारा नहीं बनता, उससे निश्चय नयके एकान्तका दोष घटित होता है ।
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प्रमत्तादि-गुणस्थानोंकी वन्दनासे चेतन मुनि वन्दित नहीं प्रमत्तादिगुणस्थानवन्दना या विधीयते ।
न तया वन्दिता सन्ति मुनयश्चेतनात्मकाः ||३६||
'प्रमत्त आदि गुणस्थानोंकी जो वन्दना की जाती है उस (वन्दना) से चेतनात्मक मुनि वन्दित नहीं होते - केवल देहकी वन्दना बनती है ।'
१. णेव य जीवट्टाणा ण गुणट्ठाणा य अत्थि जीवम्स । जेण दु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्स परिणामा ॥५५ ॥
-समयसार
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