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पद्य ३३-३७ ]
अजीवाधिकार 'जिस प्रकार योद्धाओंके द्वारा जीता गया युद्ध राजाके द्वारा जीता गया कहा जाता है, उसी प्रकार क्रोधादि-कषायभावोंके द्वारा किया गया कम जीवके द्वारा किया गया कहा जाता है।'
व्याख्या-जब कर्ता रागादिभाव है तब जीवको कर्ता क्यों कहा जाता है ? इस प्रश्नका यहाँ एक दृष्टान्त-द्वारा समाधान किया गया है जो अपने में स्पष्ट है। निश्चयसे तो संग्राममें लड़नेवाले योद्धाओंके द्वारा ही युद्ध किया जाता तथा जीता जाता है; परन्तु व्यवहारमें राजाके द्वारा, जिस प्रकार उसका किया जाना तथा जीता जाना कहा जाता है उसी प्रकार निश्चयसे क्रोधादि-द्वारा सम्पन्न होनेवाला कार्य भी-ज्ञानावरणादि कर्मबन्ध भीव्यवहारसे जीवके द्वारा किया गया कहा जाता है; जैसा कि समयसारकी निम्नगाथासे भी जाना जाता है :
जोधेहिं कदे जुद्धे राएण कदं ति जंपदे लोगो। तह ववहारेण कदं णाणावरणादि जीवेण ॥१०६॥
कर्मजनित देहादिक सब विकार चैतन्य-रहित हैं 'देह-संहति-संस्थान-गति-जाति-पुरोगमाः ।
विकाराः कर्मजाः सर्वे चैतन्येन विवर्जिताः ॥३५॥ 'जीवके शरीर, संहनन, संस्थान, गति, जाति आदि रूप जितने भी विकार हैं वे सब कर्मके निमित्तसे उत्पन्न एवं चेतना-रहित होते हैं।'
व्याख्या-इस पद्यमें शरीर-संहनन संस्थान-गनि-जातिके रूप में जिन विकारोंका उल्लेख है और 'पुरोगमाः' पदके द्वारा, जो कि 'इत्यादि' का वाचक है, पुद्गलके जिन स्पर्श रस-गन्धवर्ण आदि गुणों तथा अवस्था-विशेषरूप-पर्यायोंका सूचन किया गया है वे सब प्रायः नामकर्म-जनित हैं और पौद्गलिक होनेसे चेतना-गुणसे रहित हैं। नामकर्मकी मुख्य ४२ प्रकृतियाँ हैं, उत्तर-भेद-सहित ९३; जैसा कि मोक्षशास्त्र-गत आठवें अध्यायके 'गति-जाति-शरीराङ्गोपाङ्ग-निर्माण-बन्धन-संघात-संस्थान-संहनन-स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण' इत्यादि सूत्र नं० ११ और उसकी टीकाओं आदिसे जाना जाता है।
त्रयोदश गुणस्थान और उनको पौद्गलिकता मिथ्याक सासनो मिश्रोऽसंयतो देशसंयतः । प्रमत्त इतरोऽपूर्वस्तत्त्वज्ञैरनिवृत्तकः ॥३६॥ सूक्ष्मः शान्तः परः क्षीणो योगी चेति त्रयोदश ।
गुणाः पौद्गलिकाः प्रोक्ताः कर्मप्रकृतिनिर्मिताः ॥३७।। 'तत्त्वज्ञानियोंके द्वारा मिथ्यादृष्टि, सासादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, देशसंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, 'सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, परमक्षीणमोह, सयोगकेवली, ये तेरह गुणस्थान कर्म प्रकृतियोंसे निर्मित पौद्गलिक कहे गये हैं।'
१. संठाणा संघादा वण्णरसप्फासगंषसद्दा य । पोग्गलदब्यप्पभवा होंति गुणा पज्जया य बहू ।। पञ्चास्ति०१२६॥
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