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योगसार- प्राभृत
संग्रह नामक दो रजिस्टरोंपर से, जो उक्त भण्डार में स्थित शास्त्रोंपर से संकलित किये गये थे, कुछ ग्रन्थोकी प्रशस्तियाँ ७८ पृष्ठोंपर उद्धृत की थीं और उसके बाद प्रशस्तिसंग्रह के तीसरे रजिस्टर में शास्त्र भण्डारमें मौजूद ग्रन्थोंकी जो सूची दी हुई है उसपर से कुछ खास ग्रन्थों के नागों को भी नोट किया था, जिनकी संख्या ४७ है। इस नोटबुकके २३ वें पृष्ठपर इस ग्रन्थकी प्रशस्तिको उद्धृत किया है, जिसमें पहला पत्र न होने की सूचना की गयी है और इसलिए मंगल पद्य नहीं दिया जा सका । प्रशस्ति में ग्रन्थके अन्तिम दो पद्योंके अनन्तर ग्रन्थको समाप्त करते हुए जो कुछ लिखा है वह इस प्रकार है
"इति श्रीअमितगतिवीतरागी विरचित नवमधिकारः ।
" इति वीतराग- अमितगति-विरचितायामध्यात्मतरंगिण्यां नवाधिकाराः समाप्ताः ॥"
" संवत् १६५२ वर्षे जे द्वितीयदशम्यां शुक्ले मूलसंघे सरस्वतीगच्छे बला० गणे श्री कुन्दकुन्दा (चार्यान्वये ) भ० श्री पद्मनन्दीदेवास्तत्प० भ० सकलकीर्तिदेवास्तत्प० भ० भुवन कीर्तिदेवास्तत्प० भ० श्री ज्ञानभूषणदेवास्तत्प० भ० विजयकीर्तिदेवास्तत्प० भ० वादिभूषणगुरु तच्छिष्य पं० देवजी पठनार्थम् ।"
इस प्रशस्तिसे प्रतिके लेखन-काल और जिनके लिए प्रति लिखी गयी उन पं० देवजीकी गुरुपरम्पराके अतिरिक्त दो बातें खास तौर पर सामने आती हैं- एक ग्रन्थका नाम अध्यात्मतरंगिणी और दूसरे ग्रन्थकार अमितगतिका विशेषण 'वीतराग' | यह विशेषण उनके स्वोक्त 'निःसंगात्मा' और अमितगति द्वितीयोक्त त्यक्तनिःशेषसंगः' विशेषणोंको पुष्ट करता है और उन्हें अमितगति प्रथम ही सिद्ध करता है । रही 'अध्यात्म- तरंगिणी' नामकी बात उसकी पुष्टि कहीं से नहीं होती । मूलग्रन्थके दोनों अन्तिम पद्यों में ग्रन्थका साफ और स्पष्ट नाम 'योगसार प्राभृत' दिया है; प्रशस्तिसंग्रहके तीसरे रजिस्टर में शास्त्र भण्डार स्थित ग्रन्थोंकी जो सूची दी है उसमें भी 'योगसार' नाम दिया है, तब यह 'अध्यात्मतरंगिणी' नामको कल्पना कैसी ? मुद्रित प्रतिकी सन्धियोंमें 'योगसार' के अनन्तर ब्रेकटके भीतर 'अध्यात्मतरंगिणी' नाम दिया है और इस तरह उसे ग्रन्थका द्वितीय नाम सूचित क्रिया है; परन्तु इसका कोई आधार व्यक्त नहीं किया। 'अध्यात्मतरंगिणी' तो 'तत्त्वप्रदीपिका' की तरह टीकाका नाम हो सकता है और इससे ग्रन्थकी 'अध्यात्मतरंगिणी टीका' की भी कल्पना की जा सकती है, परन्तु वह कहीं उपलब्ध नहीं होती और न उसके रचे जानेका कहीं कोई स्पष्ट उल्लेख ही पाया जाता है । अस्तु ।
इस बम्बई प्रतिकी प्राप्तिके लिए मैंने बहुत यत्न किया, डॉ० विद्याचन्दजी जैन, हीरावाग बम्बई द्वारा सेठ माणिकचन्दजीके उत्तराधिकारियोंको बहुत कुछ प्रेरणा की, स्वयं भी पत्र लिखे; परन्तु कोई भी उससे मस नहीं हुआ और न किसीने शिष्टाचार के तौरपर उत्तर देना ही उचित समझा - सर्वत्र उपेक्षाका ही वातावरण रहा। अन्त में मैंने भारतीय ज्ञानपीठ के मन्त्री श्री लक्ष्मीचन्द्रजीको प्रेरित किया कि वे स्वयं बम्बई लिखकर ग्रन्थको उक्त प्रतिको प्राप्त करके मेरे पास भिजवायें, उत्तर में उन्होंने मुझे साहू श्रेयांसप्रसादजीको लिखनेकी प्रेरणा की, तदनुसार मैंने साहूजीको लिखा और उन्होंने सेठ माणिकचन्दजीके उत्तराधिकारी एवं शास्त्र भण्डार के अधिकारीको बुलाकर ग्रन्थको निकालकर देने आदिकी प्रेरणा की । अन्तको नतीजा यही निकला और यही उत्तर मिला कि ग्रन्थ शास्त्र भण्डारकी सूचीमें दर्ज तो है. परन्तु मिल नहीं रहा है । इसलिए मजबूरी है। बड़े परि श्रमएवं खर्चसे एकत्र किये हुए सेट माणिकचन्दजीके शास्त्र भण्डार की ऐसी स्थितिको जानकर बड़ा अफ़सोस हुआ ।
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