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पद्य ११-१४ ]
अजीवाधिकार
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'धर्म-अधर्म दोनों द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाशको व्याप्त कर तिष्ठते हैं । पुद्गलोंका अवस्थान आकाश के एक अंश आदि में - एक प्रदेश से लेकर एक-एक प्रदेश बढ़ाते हुए सम्पूर्ण लोकाकाशमें - जानना चाहिए ।'
व्याख्या - इस पद्य में धर्म-अधर्म और पुद्गल इन तीन द्रव्योंकी स्थितिका उल्लेख है । धर्म और अधर्म ये दो द्रव्य तो सारे लोकाकाशको व्याप्त करके स्थित हैं-लोकाकाशका कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं जो इनसे व्याप्त न हो। इनमें से प्रत्येककी प्रदेशसंख्या, असंख्यात होनेसे लोकाकाश भी असंख्यातप्रदेशी है यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है। पुद्गलोंकी अवस्थिति लोकके एक प्रदेशको आदि लेकर असंख्यात प्रदेशों तक में है ।
संसारी जीवोंकी लोकस्थिति और उनमें संकोच - विस्तार
'लोका संख्येयभागादाववस्थानं शरीरिणाम् । अंशा विसर्प-संहारौ दीपानामिव कुर्वते ||१४||
'शरीरधारी जीवोंका अवस्थान ( स्थिति ) लोकके असंख्येय-भागादिकोंमें है - लोकके असंख्यातवें भागसे लेकर एक-एक प्रदेश बढ़ाते हुए पूर्ण लोकाकाश तक है । संसारी जीवोंके अंश-प्रदेश दीपकोंके समान संकोच विस्तार करते रहते हैं- शरीरके आकारानुसार संकोच तथा विस्तारको प्राप्त होते रहते हैं ।'
व्याख्या - इस पद्य में देहधारी संसारी जीवोंके लोकाकाशमें अवस्थानका निरूपण करते हुए बताया है कि असंख्यात प्रदेशी लोकका असंख्यातवाँ भाग जो एक प्रदेश है उससे लेकर असंख्यात - प्रदेश-रूप पूरे लोक-पर्यन्त जीवोंकी अवस्थिति सम्भव है । एक जीवकी पूरे लोक में अवस्थिति लोकपूर्ण-समुद्धात के समय बनती है, उससे कम प्रदेशों में स्थिति दूसरे समुद्घातोंके समय तथा मूल-शरीर के आकार प्रमाण हुआ करती है । इसीसे संसारी जीवको स्वदेह - परिमाण बतलाया है और मुक्त जीवको अन्तिम देहाकारसे किंचित् ऊन (हीन ) लिखा है । मूल-शरीर जो औदारिक आदिके रूपमें होता है उसे न छोड़कर उत्तर- देह तैजसादि प्रदेशों सहित आत्म- प्रदेशोंका जो बाहर निकलना - फैलना है उसे 'समुद्घात' कहते हैं ।' उसके छह भेद हैं। उनकी स्थिति के अनुसार मूलशरीर से आत्म- प्रदेश उत्तर- देहके साथ बाहर निकलते हैं, निकलकर जितने लोकाकाशके प्रदेशों में वे व्याप्त होते हैं उतने लोकाकाशमें उनकी स्थिति कही जाती है । जीवके प्रदेशों में यह संकोच और विस्तार दीपक के प्रदेशों के समान होता है । और संसारी जीवों में ही होता है-मुक्त जीवोंमें नहीं; क्योंकि यह संकोच विस्तार कर्मके निमित्तसे होता है, मुक्तात्माओं में कर्मोंका अभाव हो जानेसे वह नहीं बनता; जैसा कि तत्त्वानुशासनके निम्न वाक्यसे प्रकट है:
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पुंसः संहार - विस्तारौ संसारे कर्म निर्मितौ ।
मुक्तौ तु तस्य तौ न स्तः क्षयात्तद्धेतु-कर्मणाम् ॥२३२॥
१. असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ||१५|| प्रदेश संहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥ १६ ॥ - त० सूत्र अ० ५। २. मूलसरीरमछंडिय उत्तर देहस्स जीव पिंडस्स । णिग्गमणं देहादो होदि समुग्धाद णामं तु ॥
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