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पद्य २२-२५]
अजीवाधिकार अथवा परिणामोंके साथ सम्बन्धको प्राप्त हुए पुद्गल (स्वतः) कर्मभावको प्राप्त हो जाते हैंउन्हें कर्मरूप परिणत करनेकी दूसरी कोई प्रक्रिया नहीं है, तत्कालीन योगोंके शुभ-अशुभ परिणमन ही उन संसक्त पुद्गलोंको शुभाशुभ कर्मके रूपमें परिणत कर देते हैं।
योग-द्वारा समायात पुद्गलोंके कर्मरूप परिणमनमें हेतु योगेन ये समायान्ति शस्तारास्तेन पुद्गलाः ।
तेऽष्टकर्मत्वमिच्छन्ति कषाय-परिणामतः ॥२३॥ 'प्रशस्त-अप्रशस्त-योगसे-मन-वचन-कायकी शुभ या अशुभ प्रवृत्तिसे-जो पुद्गल आत्मामें प्रवेश पाते हैं वे कषायपरिणामके कारण अष्टकर्मरूप परिणत होते हैं-ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंका रूप धारण करते हैं।'
व्याख्या-पिछले पद्यमें जिन पुद्गलोंका कर्मभावको प्राप्त होना लिखा है वे मन-वचनकायरूप योगोंके शुभाशुभ परिणमन-द्वारसे आत्म-प्रविष्ट हुए पुद्गल कषाय-भावके कारण आठ कर्मोंके रूपमें परिणत होते हैं-कर्मसामान्यसे कर्मविशेष बन जाते हैं। यहाँ कयापरिणामतः' यह पद हेतुरूपमें प्रयुक्त हुआ है, जिसका आशय है 'कषायरूप परिणाम निमित्तको पाकर अष्टकमरूप होना' । जबतक कषाय-परिणाम नहीं होता तबतक सारे ही स्थिति और अनुभागसे रहित होते हैं और इसीलिए कुछ भी फल देनेमें समर्थ नहीं होतेजैसे जिस समय आये वैसे उसी समय निकल गये । अतः कषायपरिणामतः' यह पद यहाँ अपना खास महत्व रखता है !
आठ कर्मोके नाम 'ज्ञानदृष्टयावृती वेद्यं मोहनीयायुषी विदुः ।
नाम गोत्रान्तरायौ च कर्नाण्यष्टेति सूरयः॥२४॥ 'ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय इन आठको आचार्य (द्रव्य-) कर्म कहते हैं।'
व्याख्या-पूर्वपद्यमें आत्म-प्रविष्ट हुए पुद्गलोंके जिन आठ कर्मरूप परिणत होनेकी बात कही गयी है उनके इस पद्य में नाम दिये गये हैं। पुद्गलात्मक होनेसे ये आठों द्रव्यकर्म हैं । इन कर्मों में अपने-अपने नामानुकूल कार्य करनेकी शक्ति होती है, जिसे 'प्रकृति' कहते हैं
और इसलिए ये आठ मूलकर्म प्रकृतियाँ कहलाती हैं, जिनके उत्तरोत्तर भेद १४८ हैं। इन कर्मप्रकृतियोंका विशेष वर्णन षटखण्डागम, गोम्मटसार, कम्मपयडि, पंचसंग्रह आदि कर्मसाहित्य-विषयक ग्रन्थोंसे जाना जाता है।
जीव कल्मषोदय-जनित भावका कर्ता न कि कर्मका कल्मषोदयतः भावो यो जीवस्य प्रजायते । स कर्ता तस्य भावस्य कर्मणो न कदाचन ॥२५॥
१. आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः ॥ -त. सूत्र ८-४। २. एएण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण । पुग्गलकम्मकयाणं ण दु कत्ता सब्वभावाणं ॥८२।। -समयसार ।
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