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योगसार-प्राभूत
[अधिकार २ जीव-पुद्गलोंका अन्यद्रव्यकृत उपकार "जीवानां पुद्गलानां च धर्माधमौ गतिस्थिती।'
अवकाशं नमः कालो वर्तनां कुरुते सदा ॥१५॥ 'धर्मद्रव्य सदा जीवों और पुद्गलोंकी गतिको-गतिमें उपकारको-अधर्मद्रव्य स्थितिकोस्थितिमें उपकारको-करता है। आकाश सदा (सब द्रव्योंके) अवकाश-अवगाहन-कार्यको और काल सब द्रव्योंके सदा वर्तना-परिवर्तन-कार्यको करता है-उस कार्यके करने में सहायक होता है।'
व्याख्या-इस पद्यमें तथा आगेके तीन पद्योंमें द्रव्योंका द्रव्योंके प्रति उपकारका वर्णन है, जिसे गुण, उपग्रह, सहाय तथा सहयोग भी कहते हैं । जीव तथा पुद्गल द्रव्योंके प्रति धर्मद्रव्य उनकी गतिमें, अधर्मद्रव्य स्थितिमें, आकाशद्रव्य अवगाहनमें, कालदव्य वर्तनापरिवृत्तिमें उदासीनरूपसे सहायक होता है-किसी इच्छाकी पूर्ति अथवा प्रेरणाके रूपमें नहीं । क्योंकि ये चारों ही द्रव्य अचेतन तथा निष्क्रिय हैं, इनमें इच्छा तथा प्रेरणादिका भाव नहीं बनता । ये तो उदासीन रहकर जीवों तथा पुद्गलोंके गति आदिरूप परिणाम-कार्यो में उसी प्रकार सहायक होते हैं जिस प्रकार कि मत्स्योंके गति-कार्यमें जल, पथिक स्थितिकार्य में मार्गस्थित वृक्ष आदि ।
संसारी और मुक्त जीवका उपकार *संसारवर्तिनोऽन्योन्यमुपकारं वितन्वते ।
मुक्तास्तव्यतिरेकेण न कस्याप्युपकुवंते ॥१६॥ 'संसारवर्ती जीव परस्पर एक दूसरेका उपकार करते हैं। मुक्तजीव उस संसारसे पृथक हो जानेके कारण किसीका भी उपकार नहीं करते हैं।'
व्याख्या-इस पद्य में संसारी तथा मुक्त दोनों प्रकारके जीवोंके उपकारका उल्लेख किया है । संसारी जीवोंके विषयमें लिखा है कि वे परस्परमें एक दूसरेका उपकार करते हैं। यहाँ उपकार शब्दमें उपलक्षणसे अपकारका भी ग्रहण है; संसारी जीव एक दूसरेका उपकार ही नहीं करते अपकार भी करते हैं, और इसलिए कहना चाहिए कि जीव एक-दूसरेके उपकारअपकार या सुख-दुःखमें सहयोग करते अथवा निमित्त कारण बनते हैं। मुक्तजीब किसीका भी उपकार नहीं करते; क्योंकि जिसका उपकार किया जाता है या किया जा सकता है वे संसारी जीव होते हैं, मुक्तजीव संसारसे सदाके लिए अलग हो गये हैं, इसलिए संसारी जीवोंका वे कोई उपकार या अपकार नहीं करते।
१. (क) गमणणिमित्तं धम्ममधम्म ठिदि जीवपुग्गलाणं च। अवगहणं आयासं जीवादी-सव्वदवाणं ॥३०॥-नियमसार। (ख) जीवादीदवाणं परिवणकारणं हवे कालो ॥३३॥-नियमसार । (ग) आगासस्सवगाहो धम्मदव्वस्स गमणहेदुत्तं । धम्मेदरदव्वस्त दु गुणो पुणो ठाणकारणदा ।। १३३॥
--प्रवचन । (घ) कालस्स वट्टणा से गुणोवओगो ति अप्पणो भणिदो। णेया संखेवादो गुणेहि मुत्तिप्पहीणाणं ॥१३४॥-प्रवचन । गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः ॥१३॥ आकाशस्यावगाहः ॥१८॥ -त. सूत्र अ० ५ । २. आ गतिस्थितिः । ३. परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥२१॥ -त० सूत्र अ०५।
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