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४८ योगसार-प्राभृत
[ अधिकार २ कभी कुछ-उपकार या अपकार नहीं करता है । धर्म-अधर्म,आकाश और काल ये चार द्रव्य तो सदा ही अपने स्वरूप में स्थित हुए स्वभाव-परिणमन करते हैं और इसलिए निश्चयसे किसीका भी उपकारादि नहीं करते। जीव और पदगल ये दो द्रव्य वैभाविकी शक्तिको लिये हुए हैं और इसलिए इनमें स्वभाव-विभाव दोनों प्रकारका परिणमन होता है । जीवोंमें विभावपरिणमन संसारावस्था तक कर्म तथा शरीरादिके संयोगसे होता है-मुक्तावस्थामें विभावपरिणमन न होकर केवल स्वभाव-परिणमन ही हुआ करता है । पुद्गलोंका स्वभाव-परिणमन परमाणुरूपमें और विभाव-परिणमन स्कन्धके रूपमें होता है। परमाणुरूपमें रहता हुआ पुद्गल किसीका भी उपकार अथवा अपकार नहीं करता, यह समझ लेना चाहिए।
यदि कोई भोला प्राणी यह कहे कि बमके रूपमें परमाणु तो बड़ा विध्वंस-कार्य करता है, बहुतोंका अपकार करता है तो किसी-किसीका उपकार भी करता है, तब उसे उपकारअपकारसे रहित कैसे कहा जावे ? इसका उत्तर इतना ही है कि जिसे परमाणु-बम कहते हैं वह तो नामका परमाणु है-किसी अपेक्षासे उसे परमाणु नाम दिया जाता है, अन्यथा वह तो विस्फोट क-पदार्थके रूपमें अनेक द्वथणुक आदि छोटे बड़े स्कन्धोंको लिये हुए एक बड़ा स्कन्ध होता है; उसे वस्तुतः परमाणु नहीं कह सकते। परमाण तो वह होता है जिसका आदिमध्य-अन्त नहीं होता, विभाग नहीं हो सकता और जो इन्द्रियगोचर नहीं होताः जैसा कि इससे पूर्व के एक पद्यमें और नियमसारकी २६वीं गाथामें दिये हुए उसके लक्षणसे प्रकट है।
पुद्गलके चार भेद और उनकी स्वरूप-व्यवस्था 'स्कन्धो देशः प्रदेशोऽणुश्चतुर्धा पुद्गलो मतः ।
समस्तमर्धमर्धाधमविभागमिमं विदुः॥१६॥ 'पुद्गलद्रव्य स्कन्ध, देश, प्रदेश, और अणु इस तरह चार प्रकारका माना गया है। इस (चतुर्विध ) पुद्गलको (क्रमशः) सकल, अर्ध, अर्धार्ध और अविभागी कहते हैं।'
व्याख्या-संख्यात असंख्यात अनन्त अथवा अनन्तानन्त परमाणुओंके पिण्डरूप जो कोई भी एक वस्तु है उसको 'स्कन्ध' कहते हैं। स्कन्धका एक-एक परमाणु करके खण्ड होते-होते जब वह आधा रह जाता है तब उस आधे स्कन्धको 'देश-स्कन्ध' कहते हैं। देशस्कन्धका खण्ड होते-होते जब वह आधा रह जाता है तब उस आधेको अथवा मृल स्कन्धके चतुर्थ भागको 'प्रदेश-स्कन्ध' कहते हैं। प्रदेश-स्कन्धके खण्ड होते-होते जब फिर कोई खण्ड नहीं बन सकता अगुमात्र रह जाता है तब उसे 'परमाणु' कहते हैं। ऐसी स्थिति में मूलस्कन्धके उत्तरवर्ती और देश-स्कन्धके पूर्ववर्ती जितने भी खण्ड होंगे उन सबकी भी 'स्कन्ध' संज्ञा, तथा देश-स्कन्धके उत्तरवर्ती और प्रदेश-स्कन्धके पूर्ववर्ती सभी खण्डोंकी भी 'देश-स्कन्ध' संज्ञा और प्रदेश-स्कन्धके उत्तरवर्ती एवं परमाणुके पूर्ववर्ती सभी खण्डोंकी भी 'प्रदेश-संज्ञा' होती है, ऐसा समझना चाहिए।
१. खंधा य खंधदेसा खंधपदेसा य होति परमाणू । इदि ते चदुवियप्पा पुग्गलकाया मुणेयव्वा ॥७४॥ खंध सयलसमत्थं तस्स य अद्ध भणति देसो त्ति । अद्धद्धं च पदेसो अविभागी चेव परमाणू ७५।।-पञ्चास्ति।
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