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पद्य १५-१८]
अजीवाधिकार यहाँ प्रश्न उत्पन्न होता है कि जब मुक्तात्मा किसीका उपकार नहीं करते तो फिर उनकी उपासना-पूजा-वन्दना क्यों की जाती है ? क्यों ग्रन्थकार महोदयने ग्रन्थके आदिमें उनकी स्तुति की है ? इसका उत्तर इतना ही है कि एक तो मुक्त जीवोंके द्वारा उनकी पूर्वकी अर्हन्तादि अवस्थाओंमें हमारा लपकार हुआ है इसलिए हम उनके ऋणी हैं, 'न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति' जो साधुजन होते हैं वे किये हुए उपकारको कभी भूलते नहीं। दूसरे, जिस आत्म-विकासरूप सिद्धिको वे प्राप्त हुए हैं उसे हमें भी प्राप्त करना इष्ट है और वह उनके आदर्शको सामने रखकर-उनके नकशे-कदमपर चलकर-तथा उनके प्रति भक्तिभावका संचार करके प्राप्त की जा सकती है अतः उनकी उपासना हमारी सिद्धिमें सहायक होनेसे करणीय है और इसीलिए की जाती है।
संसारी जीवोंका पुद्गलकृत उपकार 'जीवितं मरणं सौख्यं दुःखं कुर्वन्ति पुद्गलाः ।
उपकारेण जीवानां भ्रमतां भवकानने ॥१७।। 'संसाररूपी वनमें भ्रमण करते हुए जीवोंके पुद्गल अपने उपकार-सहकार-द्वारा जीना, मरना, सुख तथा दुःख करते हैं-जीवोंके इन कार्यरूप परिणमनमें सहायक होते हैं।'
___ व्याख्या-इस पद्यमें पुद्गलोंका संसारी जीवोंके प्रति उपकार-अपकारका संसूचन किया गया है, जिसे वे अपने सहकार-सहयोगके द्वारा सम्पन्न करते हैं अथवा यों कहिए कि उनके निमित्तसे देहधारियोंको जीवन, मरण,सुख-दुःखादि प्राप्त होते हैं । मूलमें यद्यपि 'आदि' शब्द नहीं है फिर भी जीवनादिके साथ शरीर-वचन-मन-श्वासोच्छवास तथा इन्द्रियादिका ग्रहण उपलक्षणसे होता है, वे भी पुद्गलकृत उपकार है, उनकी सूचनाके लिए यहाँ 'आदि' शब्द दिया गया है। और भी बहुत-से उपकार-अपकार शरीरके सम्बन्धको लेकर पुद्गलकृत होते हैं, उन सबका भी 'आदि' शब्द-द्वारा ग्रहण हो जाता है, जिनके लिए मोक्षशास्त्रके 'सुख-दुःख-जीवित-मरणोपग्रहाश्च' इस सूत्रमें 'च' शब्द जोड़ा गया है।
परमार्थसे कोई पदार्थ किसीका कुछ नहीं करता पदार्थानां निमग्नानां स्वरूप परमार्थतः ।
करोति कोऽपि कस्यापि न किंचन कदाचन ॥१८॥ 'वस्तुतः ( निश्चय-दृष्टिसे ) जो पदार्थ अपने स्वरूप में निमग्न हैं-स्वभाव-परिणमनको लिये हुए हैं-उनमें से कोई भी किसीका कभी रंचमात्र उपकार-अपकार नहीं करता।'
व्याख्या-इस पद्यमें प्रयुक्त हुआ 'परमार्थतः' पद अपनी खास विशेषता रखता है और इस बातको सूचित करता है कि पिछले पद्यमें द्रव्योंका द्रव्योंके प्रति जिस उपकारका निर्देश है वह सब व्यवहार-नयकी अपेक्षासे है। निश्चय-जयकी दृष्टिसे तो अपने-अपने स्वरूपमें निमग्न होकर स्वभाव-परिणमन करते हुए द्रव्यों में से कोई भी द्रव्य किसी भी परद्रव्यका
१. सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥५-२०॥ -त० सूत्र । २. शरीरवाङ्मनःप्राणापाना: पुद्गलानाम् ।।५-१९॥ -त० सूत्र । पुद्गलानां शरीरं वाक् प्राणापानौ तथा मनः । उपकारं सुखं दुःखं जीवितं मरणं तथा ।। -तत्त्वार्थसार ३-३१ ।
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