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योगसार-प्राभ
[ अधिकार १ भावको लेकर मोक्षशास्त्रके 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' इत्यादि मंगल-पद्यमें 'वन्दे तद्गुणलब्धये' इस वाक्यकी सृष्टि हुई है। - यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि स्वभावका तो कभी अभाव नहीं होता, वह सदा वस्तुमें विद्यमान रहता है; तब यह स्वभावकी उपलब्धि कैसी ? और उसके लिए प्रयत्न कैसा ? इसके उत्तरमें मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि यह ठीक है कि स्वभावका कभी अभाव नहीं होता परन्तु उसका तिरोभाव (आच्छादन ) होता तथा हो सकता है और वह उन्हीं जीव-पुद्गल नामके दो द्रव्यों में होता है जो वैभाविक परिणमनको लिये हुए होते हैं। आत्माके वैभाविक परिणमनको सदाके लिए दूर कर उसे उसके शुद्ध-स्वरूपमें स्थित करना ही 'स्वस्वभावोपलब्धि' कहलाता है, जिसके लिए प्रयत्नका होना आवश्यक है।
इस पद्यमें ग्रन्थके निर्माणकी कोई प्रतिज्ञा नहीं है, अगले पद्य में भी उसे दिया नहीं गया। फिर भी 'स्वस्वभावोपलब्धये' पदमें सिद्ध-समूहकी उपासनाका जो उद्देश्य संनिहित है वही इस ग्रन्थके निर्माणका भी लक्ष्यभूत है और वह है आत्माके शद्धस्वरूपकी ज्ञप्ति (जानकारी) और संप्राप्ति, जिसको प्रदर्शित करने के लिए ग्रन्थके अन्त तक पूरा प्रयत्न किया गया है। ग्रन्थके अन्तमें लिखा है कि जो इस योगसारप्राभृतको एकचित्त हुआ एकाग्रतासे पढ़ता है वह अपने स्वरूपको जानकर तथा सम्प्राप्त कर उस परमपदको प्राप्त होता है जो सांसारिक दोषोंसे रहित है। और इसलिए उक्त उद्देश्यात्मक-पदमें ग्रन्थविषयके निर्माणकी प्रतिज्ञा भी शामिल है। ग्रन्थके नाममें, जिसे अन्तके दो पद्योंमें व्यक्त किया गया है, जो 'योग' शब्द पड़ा है उसके लक्षण अथवा स्वरूपनिर्देशसे भी इसका समर्थन होता है, जिसमें बतलाया है कि जिस योगसे-सम्बन्ध-विशेषरूप ध्यानसे-विविक्तात्माका परिज्ञान होता है उसे उन योगियोंने 'योग' कहा है जिन्होंने योगके द्वारा पापोंको-कपायादिमलको-आत्मासे धो डाला है। और इसलिए कारणमें कार्यका उपचार करके यहाँ 'योगसार' नाम शुद्धात्मरूप समयसारका भी वाचक है।
स्वरूप-जिज्ञासासे जीवाजीवलक्षणको जाननेकी सहेतुक प्रेरणा जीवाजीवं द्वयं त्यक्त्वा नापरं विद्यते यतः।
तल्लक्षणं ततो ज्ञेयं स्व-स्वभाव-बुभुत्सया ॥ २ ॥ 'कि (इस संसारमें ) जीव-अजीव-आत्मा-अनात्मा (इन दो मूल तत्त्वा) को छोड़कर अन्य कुछ भी विद्यमान नहीं है-सब कुछ इन्हींके अन्तर्गत है, इन्हींका विस्तार है-इसीलिए अपने स्वरूपको जाननेको इच्छासे इन दोनोंका-जीव-अजीवका-लक्षण जानना चाहिए।'
व्याख्या-पहले पद्यमें सिद्ध-समूहकी स्तुति-वन्दनारूप उपासनाका और प्रकारान्तरसे ग्रन्थके विषय-प्रतिपादनरूप निर्माणका उद्देश्य स्व-स्वभावकी उपलब्धि बतलाया था। स्वस्वभावकी उपलब्धिका प्रयत्न स्वभावको जाने-पहचाने बिना नहीं बन सकता। अतः इस पद्यमें स्वस्वभावको जाननेके लिए जीव तथा अजीवके लक्षणको जानना चाहिए ऐसा जाननेके उपायरूपमें निर्देश किया है; क्योंकि जीव और अजीव इन दो मूल तत्त्वोंसे भिन्न संसारमें और कुछ भी विद्यमान नहीं है-संसारकी सारी वस्तु-व्यवस्था इन्हीं दो मूल तत्त्वोंके अन्तगत है-इन्हीं दोके भीतर समायी हुई है अथवा इन्हींका विस्तार है, जिन्हें आत्मा-अनात्मा
१. विविक्तात्मपरिज्ञानं योगात्संजायते यतः । स योगो योगिभिर्गीतो योगनिर्धतपातकैः ॥९-१०॥ २. जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसो तत्त्वसंग्रहः । यदन्यदुच्यते किंचित्सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः ॥५०॥
-इष्टोपदेश
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