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पद्य ५१-५६ ]
जीवाधिकार
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'चेतन - आत्माके स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द, देह, इन्द्रियाँ आदिक स्वभावसे किसी समय भी विद्यमान नहीं होते ।'
व्याख्या - पिछले पद्य में शुद्धात्माके जो 'कर्मनो कर्मनिर्मुक्त' और 'अमूर्त' विशेषण दिये गये हैं उनके विषयको यहाँ स्पष्ट किया गया है : लिखा है कि वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द, देह और इन्द्रियादिक ये सब कभी भी स्वभावसे चेतनात्मा के रूप नहीं होते, क्योंकि ये सब पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं । 'आदि' शब्दसे रूप, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, मार्गणा, तथा कर्म वर्गणादि गुणस्थान - पर्यन्त उन सब भावोंका ग्रहण है जिनका समयसारमें ( गाथा ५० से ५५ तक ) उल्लेख है । यह सब कथन निश्चयनयकी दृष्टिसे है, जिसका सूचन 'निसर्गेण ' पदसे होता है, जो स्वभावका वाचक है -विभावका नहीं । पुद्गल द्रव्यके सम्बन्धसे जो कुछ परिणाम आत्मामें होता है वह सब विभाव परिणाम है और इसलिए जीव वर्णादिकका होना यह सब व्यवहार- नयकी दृष्टिसे है, निश्चय-नयको दृष्टिसे नहीं; जैसा कि श्री कुन्दकुन्दाचार्यने समयसारकी निम्न गाथामें प्रकट किया है।
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ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमाईया | गुणठाता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स ॥५६॥
शरीर-योगसे वर्णादिकी स्थितिका स्पष्टीकरण
शरीर - योगतः सन्ति वर्ण- गन्ध - रसादयः । स्फटिकस्यैव शुद्धस्य रक्त- पुष्पादि योगतः ॥ ५४ ॥
'शुद्ध आत्माके वर्ण गन्ध रस आदिक शरीरके सम्बन्धसे होते हैं; जैसे शुद्ध-श्वेत स्फटिक के लाल-पीले-हरे आदि पुष्पों के योगसे लाल-पीले-हरे आदि वर्ण ( रंग ) होते हैं ।'
व्याख्या - इस पद्य में आत्माका वर्णादिक विकाररूप विभाव-परिणमन निश्चयसे नहीं होता किन्तु व्यवहारसे कहा जाता है, इस बातको एक उदाहरण द्वारा दर्शाया गया है। लिखा है कि जिस प्रकार लाल-पीले-हरे आदि पुष्पोंके योगसे शुद्ध स्फटिकको लाल-पीले-हरे आदि रंगका कहा जाता है उसी प्रकार जीवात्माको शरीरके योगसे वर्ण- गन्ध-रसादि-रूप कहा जाता है— वास्तवमें ये उसके रूप नहीं, रक्त-पुष्पादि जैसी शरीरकी उपाधि से सम्बन्ध रखते हैं |
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रागादिक औदयिक भावोंको आत्माके स्वभाव माननेपर आपत्ति
राग-द्वेष-मद-क्रोध-लोभ-मोह-पुरस्सराः । भवन्त्योदयका दोषाः सर्वे संसारिणः सतः || ५५॥
यदि चेतयितुः सन्ति स्वभावेन क्रुधादयः । read arata निवार्यन्ते तदा कथम् ||५६ ॥
'संसारी जीवके जो राग-द्वेष-मद-क्रोध-लोभ-मोह-आदि दोष होते हैं वे सब औदयिक हैंकर्मों के उदयवश होते ( स्वभावसे नहीं होते ) । यदि चेतन आत्माके क्रोधादिक दोषोंका होना स्वभावसे माना जाय तो उन दोषोंका मुक्त-आत्माके होनेका निषेध कैसे किया जा सकता है ? - नहीं किया जा सकता; क्योंकि स्वभावका कभी अभाव नहीं होता ।'
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