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४२ योगसार-प्राभूत
[ अधिकार २ प्रकार स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णसे शून्य पुद्गल नहीं होता उसी प्रकार गुणोंसे शून्य द्रव्य नहीं होता । इस तरह पर्यायोंका द्रव्यके साथ और द्रव्यका पर्यायोंके साथ जिस प्रकार अनन्यभूत (अभिन्न) भाव है उसी प्रकार द्रव्यका गुणोंके साथ और गुणोंका द्रव्यके साथ अव्यतिरिक्त (अभेद) भाव है। इसी बातको अमृतचन्द्राचार्यने तत्त्वार्थसारके निम्न पद्योंमें व्यक्त किया है, जो श्री कुन्दकुन्दाचार्य के अनुकरणको लिये हुए हैं :
गुणैविना न च द्रव्यं विना द्रव्याच्च नो गुणाः । द्रव्यस्य च गुणानां च तस्मादव्यतिरिक्तता ॥११॥ न पर्यायाद्विना द्रव्यं विना द्रव्यान्न पर्ययः । वदन्त्यनन्यभूतत्वं द्वयोरपि महर्षयः ॥१२॥
धर्माधर्मादि-द्रव्योंकी प्रदेश-व्यवस्था धर्माधर्मैकजीवानां प्रदेशानामसंख्यया ।
अवष्टब्धो नभोदेशः प्रदेशः परमाणुना ॥६॥ 'धर्म, अधर्म और एक जीव इन द्रव्योंके प्रदेशोंकी असंख्याततासे-प्रत्येकके असंख्यात प्रोझोंसे-आकाशका देश-लोकाकाश-अवरुद्ध है और परमाणुसे-पुद्गलपरमाणु तथा काला से आकाशका-लोकाकाशका-प्रदेश अवरुद्ध है।''
. व्याख्या-जिन धर्मादि छह द्रव्योंका ऊपर उल्लेख है उनके प्रदेशोंकी संख्या आदिका वर्णन करते हुए उनमें धर्मदव्य, अधर्मदव्य और एक जीवके प्रदेशोंकी संख्या यहाँ असंख्यात बतलायी है और यह भी बतलाया है कि उनमें से प्रत्येकके असंख्यात असंख्यात प्रदेशोंसे आकाशका देश जो लोकाकाश है वह अवरुद्ध है-घिरा हुआ है-और पुद्गलपरमाणु तथा कालाणुसे लोकाकाशका प्रदेश घिरा हुआ है।
परमाणुका लक्षण द्रव्यमात्मादिमध्यान्तमविभागमतीन्द्रियम् ।
अविनाश्य ग्निशस्त्राद्यैः परमाणुरुदाहृतम् ॥१०॥ 'जो (स्वयं) आदि मध्य और अन्तरूप है-जिसका आदि मध्य और अन्त एक दूसरेसे भिन्न नहीं है-अविभागी है--जिसका विभाजन-खण्ड अथवा अंशविकल्प नहीं हो सकता-अतीन्द्रिय है-इन्द्रियों-द्वारा ग्राह्य नहीं और अग्नि-शस्त्र-आदि-द्वारा विनाशको प्राप्त नहीं हो सकता, ऐसा द्रव्य 'परमाणु' कहा गया है।'
व्याख्या-जिस परमाणुका पिछले पद्यमें उल्लेख है उसका इस पद्यमें लक्षण दिया है। उस लक्षण-द्वारा उसे स्वयं आदि-मध्य-अन्तरूप अर्थात् आदि-मध्य-अन्तसे रहित, विभाग-विहीन, इन्द्रियोंके अगोचर और अग्नि-शास्त्रादि किसी भी पदार्थके द्वारा नाशको प्राप्त न होनेवाला अविनाशी बतलाया है। जिसमें ये सब लक्षण घटित न हों उसे परमाणु न समझना चाहिए। .
व इंदिए गैज्मं । अविभागी जं दव्वं
१. भा प्रदेशपरमाणुना। २. अतादि अत्तमझं अत्तंतं परमाणू तं वियाणाहि ॥२६॥ -नियमसार ।
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