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पद्य ५७-५८]
जीवाधिकार
गुण-जीवा-पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओय। उवओगो विसभेदे बीसं तु परूवणा भणिया॥ गइ इंदिये य काये जोए वेये कसायणाणे य।
संजम-दंसण-लेस्सा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे॥ इन सबके अवान्तर भेदों और उनके स्वरूपको षट्खण्डागम, गोम्मटसार, पंचसंग्रहादि सिद्धान्त ग्रन्थोंसे जाना जा सकता है। यहाँ संक्षेपमें इतना ही कह दिया है कि कोई भी जीव-विषयक प्ररूपणा किसी भी कर्मके अस्तित्वसे सम्बन्ध रखती है वह शुद्ध (मुक्त) जीवकी प्ररूपणा नहीं है और इसीलिए उसे संसारी जीवको प्ररूपणा समझना चाहिए।
क्षायोपशमिकभाव भी शुद्धजीवके रूप नहीं क्षायोपशमिकाः सन्ति भावा ज्ञानादयोऽपि ये ।
स्वरूपं तेऽपि जीवस्य विशुद्धस्य न तत्त्वतः ॥५८|| 'जो ज्ञान आदिके भी रूपमें क्षायोपशमिक भाव हैं वे भी तत्त्व-दृष्टि से विशुद्ध-जोवका स्वरूप नहीं हैं।'
व्याख्या-शुद्ध-आत्माके स्वरूपको स्पष्ट करते हुए जिस प्रकार पिछले पद्योंमें यह बतला आये हैं कि गुणस्थानादिरूप बीस प्ररूपणाएँ और जितने भी औदयिक भाव हैं वे सब कर्मजन्य तथा कर्मों के सम्बन्धसे निष्पन्न होनेके कारण आत्माके निजभाव अथवा स्वभाव न होकर विभाव-भाव हैं, उसी प्रकार इस पद्यमें क्षायोपशमिक भावोंके विषयमें भी लिखा है कि वे भी तात्त्विकदृष्टि से विशुद्धात्माके भाव नहीं हैं; क्योंकि उनकी उत्पत्तिमें भी कोके क्षयोपशमका सम्बन्ध है: देशघाति स्पर्द्धकों (कर्मवर्गणा-समूहों) का उदय रहते सर्वघाति स्पर्द्धकोंका उदयाभावी क्षय और उन्हींका (आगामी कालमें उदय आनेकी अपेक्षा) सदवस्थारूप उपशम होनेसे क्षायोपशमिक भाव होता है। क्षायोपशमिक भावके अठारह भेद हैं: मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्ययरूप चार ज्ञान; कुमति-कुश्रुत-कुअवधि-रूप तीन अज्ञान; चक्षुअचक्षु-अवधिरूप तीन दर्शन; दान-लाभ-भोग-उपभोग-वीर्यरूप पाँच लब्धियाँ; एक सम्यक्त्व, जिसे वेदक सम्यक्त्व कहते हैं, एक चारित्र (संयम) और एक संयमासंयम । इन १८ भेदोंमें ज्ञान, अज्ञान, दर्शन और लब्धियों रूप भाव अपने-अपने आवरण और वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशमसे होते हैं ?
यहाँ क्षायोपशमिक ज्ञानादिकको शुद्धात्माका स्वरूप न बतलानेसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वे आत्माके स्वभाव न होकर विभाव हैं। ज्ञान-दर्शन दोनों उपयोग स्वभावविभावके भेदसे दो-दो भेद रूप हैं। स्वभाव ज्ञान-दर्शन केवलज्ञान और केवलदर्शन है, जो इन्द्रिय-रहित और परकी सहायतासे शून्य असहाय होते हैं। शेष सब ज्ञान-दर्शन विभावरूप है; जैसा कि श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकी निम्न दो गाथाओंसे प्रकट है:
केवलमिदियरहियं असहायं तं सहावणाणं ति।
सण्णाणिदरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ॥११॥ १. सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयक्षयात्तेषामेव सदुपशमाद्देशघातिस्पर्द्धकानामुदये क्षायोपशमिको भावो भवति ।-सर्वार्थसिद्धि। २. ज्ञानाज्ञान-दर्शन-लब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्व-चारित्रसंयमासंयमाश्च । -त० सूत्र.२-५। ३. तत्र ज्ञानादीनां वृत्तिः स्वावरणान्तराय-क्षयोपशमाव्याख्यातव्या । -सर्वार्थसिद्धि।
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