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योगसार-प्राभृत
[अधिकार १ परद्रव्य-विचिन्तक और विविक्तात्म-विचिन्तककी स्थिति परद्रव्यीभवत्यात्मा परद्रव्यविचिन्तकः ।
क्षिप्रमात्मत्वमायाति विविक्तात्मविचिन्तकः ।।५१॥ 'पर-द्रव्योंको चिन्तामें मग्न रहनेवाला आत्मा परद्रव्य-जैसा हो जाता है और शुद्ध आत्माके ध्यानमें मग्न आत्मा शीघ्र आत्मतत्त्वको-अपने शुद्धस्वरूपको-प्राप्त कर लेता है।'
व्याख्या--इस पद्यमें परपदार्थों की चिन्ताके दोपको और स्वात्मचिन्ताके गुणको दर्शाया है : लिखा है कि जो निरन्तर परद्रव्योंकी चिन्तामें रत रहता है वह परदव्य-जैसा हो जाता है और जो शुद्ध आत्माके चिन्तनमें लीन रहता है वह शीघ्र ही अपने आत्मस्वरूपको प्राप्त होता है-परद्रव्यरूप अथवा बहिरात्मा नहीं रहता।
विविक्तात्माका स्वरूप कर्म-नोकर्म-निर्मुक्तममूर्तमजरामरम ।
'निर्विशेषमसंबद्धमात्मानं योगिनो विदुः ॥५२॥ 'योगी-जन आत्माको कर्म-नोकर्म-विमुक्त-ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों, रागद्वेषादिभावकर्मों और शरीरादि नोकर्मसे रहित-अमूर्तिक---स्पर्श, रस-गन्ध-वर्ण-विहीन-अजर-अमरजन्म-जरा-मरणसे अतिक्रान्त-निविशेष-विशेष अथवा गुण-भेदसे शून्य सामान्यस्वरूप-और असम्बद्ध-सब प्रकारके सम्बन्धों एवं बन्धनोंसे रहित स्वतन्त्र (स्वाधीन)बतलाते हैं।'
व्याख्या-जिस शुद्धात्माके चिन्तनका पिछले पद्यमें उल्लेख है उसे यहाँ एक दूसरे ही ढंगसे स्पष्ट किया गया है-यह बतलाया गया है कि वह आत्मा (द्रव्य-भावरूप) कर्मोंसे, (शरीरादि रूप) नोकर्मोंसे विमुक्त है, (स्पर्श-रस, गन्ध-वर्णकी व्यवस्थारूप, मूर्तिसे रहित) अमूर्तिक है (कभी जरासे व्याप्त न होनेवाला) अजर है, (कभी मरणको प्राप्त न होनेवाला)
पर है, सव विशेषोंसे रहित अविशेष और सब प्रकारके बन्धनोंसे रहित असम्वद्ध है। योगिजनोंने इसी रूपमें शुद्धात्माका अनुभव करके उसका निर्दश किया है।
आत्माके स्वभावसे वर्ण-गन्धादिका अभाव 'वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-शब्द-देहेन्द्रियादयः। चेतनस्य न विद्यन्ते निसर्गण कदाचन ॥५३।।
१. आ क्षिप्रमात्मात्व । २. जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुटुं अणण्णयं णियदं। अविसेसमजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ॥१४॥ -समयसार । ३. जीवस्स णत्थि वण्णो णवि गंधो णवि रसो णवि.य फासो। णवि रूवं ॥ सरीरं णवि संठाणं पसंहणणं ॥५०॥ जीवस्स णत्थि रागो णवि दोसो णेव विज्जदे मोहो । णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि ।।५१॥ जीवस्स णत्थि वग्गो ण वग्गणा णेव फड्डया केई । णो अज्झप्पट्ठाणा व य अणुभाय ठाणा वा ॥५२॥ जीवस्स पत्थि केई जीवदाणाण बंधठाणा वा । णेव य उदयट्ठाणा ण मग्गणट्टाणया केई ॥५३॥ णो ठिदिबंधट्ठाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा। णेव विसोहिट्ठाणा णो संजमलद्धि-ठाणा वा ॥५४॥ णेव य जीवट्राणा ण गणदाणा य भत्थि जीवस्स । जेण दु एदे सव्वे पुग्गलदव्यस्स परिणामा ॥५५॥-समयसार ।
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