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पद्य ३८-४२]
जीवाधिकार
व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रका रूप 'आचार-वेदनं ज्ञानं सम्यक्त्वं तत्त्व-रोचनम् ।
चारित्रच तपश्चर्या व्यवहारेण गद्यते ॥४१॥ 'व्यवहारसे-व्यवहारनयकी अपेक्षासे-तत्त्वरुचिको सम्यग्दर्शन, आचारवेदनकोआचारांगादि-श्रुतके जाननेको-अथवा दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्यके भेदरूप पाँच प्रकारका जो आचार है उसके अधिगमको सम्यग्ज्ञान और तपरूप प्रवृत्तिको सम्पकचारित्र कहा जाता है।
व्याख्या-इस पद्यमें व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रका निर्देश है, तत्त्वों-पदाथोंकी रुचि-प्रतीति अथवा श्रद्धाको सम्यग्दर्शन बतलाया है और उसके लिए कुन्दकुन्दाचार्य के पंचास्तिकाय (गा० १०७) तथा समयसार (गा० १५५ ) ग्रन्थोंकी तरह 'सम्यक्त्व' शब्दका प्रयोग किया है, जो कि सम्यग्दर्शनका पर्याय-नाम है और जिसे समयसारकी २७६वीं गाथामें 'दसण' शब्दसे भी उल्लिखित किया है। आचार-वेदन (ज्ञान)को सम्यग्ज्ञानके रूपमें निर्दिष्ट किया है । इस 'आचार-वेदनं' पदमें 'आचार' शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ जान पड़ता है-एक तो द्वादशांग-श्रुतके प्रथम अंग आचारांगके अर्थमें। इस अर्थमें इसे ग्रहण करनेसे शेष अंगोंके ज्ञानको भी उपलक्षणसे साथमें ग्रहण करना होगा। इसीसे कुन्दकुन्दाचार्गने समयसारकी २७६वीं गाथामें 'आयारादीणाणं' इस वाक्यमें आयार (आचार ) के साथ 'आदि' शब्दको जोड़ा है और पंचास्तिकायकी १६०वीं गाथामें ‘णाणमंगपुव्वगदं' वाक्यके द्वारा स्पष्ट ही अंगों तथा पूर्वोके ज्ञानको सम्यग्ज्ञान बतलाया है। दूसरा अर्थ मूलाचारवर्णित दर्शनाचारादि रूप पाँच प्रकारके आचार-ज्ञानसे सम्बन्ध रखता है, जिसमें प्रकारान्तरसे सारे श्रुतज्ञानका समावेश हो जाता है । 'तपश्चर्या' का नाम यहाँ 'सम्यकचारित्र' बतलायां है, जो कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य के 'चेट्टा तवं म्हि चरिया' इस वाक्यके समकक्ष है और जिसका आशय समभाव ( समता) अथवा रागादिकके परित्यागसे है।'
स्वभाव-परिणत आत्मा ही वस्तुतः मुक्तिमार्ग सम्यक्त्व-ज्ञान-चारित्र-स्वभावः परमार्थतः ।
आत्मा राग-विनिर्मुक्तो मुक्ति-मार्गो विनिर्मलः ॥४२॥ 'परमार्थसे-निश्चय नयकी अपेक्षासे-रागरहित विगतकर्ममल एवं सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र-स्वभावमें स्थित आत्मा मोक्षमार्ग है।'
व्याख्या-पारमार्थिक दृष्टिसे आत्मा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रम्प स्वभावको लिये हुए है। इस स्वभावको ही 'वत्थुसहावो धम्मो' इस सूत्रके अनुसार 'धर्म' कहा जाता है; जैसा कि
१. धम्मादोसद्दहणं सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं । चेट्ठा तवं म्हि चरिया बवहारो मोक्खमग्गो ति ॥१६०।।
-पञ्चास्ति० । २. सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं तेसिमधिगमो णाणं । चारित्तं समभावो विसयेसु विरूढमग्गाणं ॥१०७॥ जोवादोसद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं । रायादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो ॥१५५।। आयारादी गाणं जीवादी दंसणं च विष्णेयं । छज्जीवणिकं च तहा भणइ चरित्तं तु ववहारो ॥२७६॥ ३. चारित्तं समभावो बिसयेसु विरूढमग्गाणं -पश्चास्ति० १०७। रायादी परिहरणं चरणं-समयसार १५५ । चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति गिद्दिवो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो ह समो।।--प्रवचनसार ७
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