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पद्य १९]
जीवाधिकार इसके सिवाय दर्पण भी तरह-तरहके होते हैं। एक सर्व साधारण दर्पण जो शरीरके ऊपरी भागको ही प्रतिबिम्बित करता है-चर्म-मांसके भीतर स्थित हाड़ों आदिको नहीं; परन्तु दूसरा ऐक्सरे-दर्पण जो चर्म-मांसके व्यवधानमें स्थित हाड़ों आदिको भी प्रतिबिम्बित करता है। एक प्रकारका दर्पण समीप अथवा कुछ ही दूरके पदार्थोंको प्रतिबिम्बित करता है, दूसरा दर्पण (रेडियो, टेलीविजन आदिके द्वारा) बहुत दूरके पदार्थोंको भी अपनेमें प्रतिबिम्बित कर लेता है। और यह बात तो साधारण दर्पणों तथा फोटो-दर्पणों में भी पायी जाती है कि वे बहुत-से पदार्थोंको अपनेमें युगपत् प्रतिबिम्बित कर लेते हैं और उसमें कितने ही निकट तथा दूरवर्ती पदार्थोंका पारस्परिक अन्तराल भी लुप्त-गुप्त-सा हो जाता है, जो विधिपूर्वक देखनेसे स्पष्ट जाना जाता है। इसके अलावा स्मृति ज्ञान-दर्पणमें हजारों मील दूरकी और बीसियों वर्ष पहलेकी देखी हुई घटनाएँ तथा शक्लें (आकृतियाँ) साफ झलक आती हैं। और जाति-स्मरणका दर्पण तो उससे भी बढ़ा-चढ़ा होता है, जिसमें पूर्व जन्म अथवा जन्मोंकी सैकड़ों वर्ष पूर्व और हजारों मील दूर तककी भूतकालीन घटनाएं साफ
लक आती हैं। इसी तरह निमित्तादि श्रतज्ञान-द्वारा चन्द्र-सूर्य ग्रहणादि जैसी भविष्यकी घटनाओंका भी सच्चा प्रतिभास हुआ करता है। जब लौकिक दर्पणों और स्मृति आदि क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्पणोंका ऐसा हाल है तब केवलज्ञान जैसे अलौकिक-दर्पणकी तो बात ही क्या है-उस सर्वातिशायि-ज्ञानदर्पणमें अलोक-सहित तीनों लोकोंके वे सभी पदार्थ प्रतिभासित होते हैं जो 'ज्ञेय' कहलाते हैं--चाहे वे वर्तमान हों या अवर्तमान । क्योंकि ज्ञेय वही कहलाता है जो ज्ञानका विषय होता है-ज्ञान जिसे जानता है। ज्ञानमें लोक-अलोकक सभी पदार्थोंको जाननेकी शक्ति है, वह तभीतक उन्हें अपने पूर्णरूपमें नहीं जान पाता जबतक उसपर पड़े हुए आवरणादि प्रतिबन्ध सर्वथा दूर होकर वह शक्ति पूर्णतः विकसित नहीं हो जाती। ज्ञानशक्तिके पूर्ण विकसित और चरितार्थ होनेमें बाधक कारण हैं ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय नामके चार घातियाकर्म । इन चारों घातियाकर्मोंकी सत्ता जब आत्मामें नहीं रहती तब उसमें उस अप्रतिहतशक्ति–ज्ञानज्योतिका उदय होता है जिसे लोक-अलोकके सभी ज्ञेय पदार्थोंको अपना विषय करनेसे फिर कोई रोक नहीं सकता।
___ जिस प्रकार यह नहीं हो सकता कि दाहक-स्वभाव अग्नि मौजूद हो, दाह्य-इन्धन भी मौजूद हो, उसे दहन करने में अग्निके लिए किसी प्रकारका प्रतिबन्ध भी न हो और फिर भी वह अग्नि उस दाह्यकी दाहक न हो, उसी प्रकार यह भी नहीं हो सकता कि उक्त अप्रतिहत-ज्ञानज्योतिका धारक कोई केवलज्ञानी हो और वह किसी भी ज्ञेयके विषयमें अज्ञानी रह सके । इसी आशयको श्रीविद्यानन्दस्वामीने अपनी अष्टसहस्त्रीमें, जो कि समन्तभद्र कृत आप्तमीमांसाकी अपूर्व टीका है, निम्न पुरातन वाक्य-द्वारा व्यक्त किया है
"ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धने। दाह्येऽग्निहको न स्यादसति प्रतिबन्धने।"
अतः केवलज्ञानी श्रीवर्द्धमान स्वामीके ज्ञानदर्पणमें अलोक-सहित तीनों लोकोंके प्रतिभासित होने में बाधाके लिए कोई स्थान नहीं है; जब कि वे घातिकर्म-मलको दूर करके निधूतकलिलात्मा होते हैं।
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