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पद्य २३-२७]
जीवाधिकार
क्षायिक-क्षायोपरामिक ज्ञानोंको स्थिति क्षायोपशमिकं ज्ञानं कर्मापाये निवर्तते ।
प्रादुर्भवति जीवस्य नित्यं क्षायिकमुज्ज्वलम् ॥२५॥ 'आत्माका क्षायोपशमिक ज्ञान कर्मोके-ज्ञानावरणादि विवक्षित कर्म प्रकृतियोंकेनाश होनेपर नाशको प्राप्त हो जाता है और जो निर्मल क्षाधिकज्ञान-केवलज्ञान-है वह सदा उदयको प्राप्त रहता है-सारे कर्मोका नाश हो जाने पर भी उसका कभी नाश नहीं होता।'
व्याख्या-यहाँ क्षायिक और क्षायोपशमिक दोनों प्रकारके ज्ञानोंके उदय-अस्तके नियमको कुछ दर्शाया है-लिखा है कि क्षायोपामिक ज्ञान तो जिन कर्म-प्रकृतियोंके क्षय-उपशमादिरूप निमित्तको पाकर उदित होता है उन कर्मप्रकृतियों के नाश होनेपर अस्तको प्राप्त हो जाता है; परन्तु केवलज्ञान एक बार उदय होकर फिर कभी अस्तको प्राप्त नहीं होता, सदा उदित ही बना रहता है, यह दोनोंमें भारी अन्तर है। क्षायोपशमिक ज्ञानकी स्थिति निमित्तभूत कर्मोकी स्थितिके बदलनेसे बदलती रहती है परन्तु केवलज्ञानकी स्थितिमें कोई परिवर्तन नहीं होता-वह त्रिकाल-त्रिलोक-विषयक समस्त ज्ञेयोंको युगपत् जानता रहता है।
केवलज्ञानकी त्रिकालगोचर सभी सत्-असत् पदार्थोको युगपत् जाननेमे प्रवृत्ति
'सन्तमर्थमसन्तं च काल-त्रितय-गोचरम् ।
अवैति युगपज्ज्ञानमव्याघातमनुत्तमम् ।।२६।। (मायिक ) ज्ञान, जो कि अव्याघातो है-अपने विषयमें किसी भी पर-पदार्थसे बाधित या मद्ध नहीं होता और अनुत्तम है-जिससे अधिक श्रेष्ठ दूसरी कोई वस्तु अथवा ज्ञान नहीं-वह त्रिकालविषयक सत्-असत् सभी पदार्थों को युगपत्---एक साथ-जानता है।'
___ व्याख्या-यहाँ जिस ज्ञानको अन्याबाध और अनुत्ता बनलाया गया है वह वही क्षायिक ज्ञान है जिसे पिछले पदामें उज्ज्वल (परम निर्मल ) और कभी अम्त न होकर सदा उदित रहनेवाला तथा २८वें पद्यमें केवलज्ञान' व्यक्त किया है। इसी ज्ञानकी यह महिमा अथवा विशंपता है कि यह त्रिकाल-गोचर सारे विद्यामान तथा अविदामान पदार्थोंको युगपत्-एक साथ अपना विषय बनाता है-अपने अन्यायाध गुणके कारण सदा अबाधितविषय रहता द--कोई भी पर-पदार्थ उसको उसके त्रिकाल-गोचर सत्-असत् पदार्थोके जानने में कभी बाधक नहीं होता है।
गत् और अगत् पदार्थ कौन ? असन्तस्ते मता दक्षरतीता भाविनश्च ये । वर्तमानाः पुनः सन्तवलोक्योदरवर्तिनः ।।२७||
१. तत्कालिगव सन्वे सदसम्भन्दा हि पज्जया तासि । वाणाण विरासदो दवजादी ।।३।।
--प्रवचनसार २. जे न हि जागाजे खलु पदा भनीया 11 । होति अगभदा पज्जाया णाणपनव॥३॥
---प्रवचनसार
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