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पद्य ३२-३४]
जीवाधिकार प्रवृत्ति तथा निवृत्तिमें समर्थ होता है। मन सविकल्प अथवा चंचल रहे और इन्द्रियाँ अपने व्यापारसे निवृत्त हो जायें यह प्रायः नहीं बनता। श्री पूज्यपादाचार्यने भी समाधितन्त्रमें 'स्तिोमतेनान्तरात्मना' और इष्टोपदेशमें 'एकाग्रत्वेन चेतसः' पदके द्वारा इसी बातको व्यक्त किया है । इतना ही नहीं, प्रकृत ग्रन्थमें भी. उसका आगे स्पष्ट उल्लेख किया है
निषिध्य स्वार्थतोऽक्षाणि विकल्पातीतचेतसः।
तद्रूपं स्पष्टमाभाति कृताभ्यासस्य तत्त्वतः ॥४५॥ इस पद्यमें 'कृताभ्यासस्य' पदके द्वारा एक बात खास तौरसे और कही गयी है और वह यह कि यह आत्मदर्शन (यूँ ही सहज-साध्य नहीं) अभ्यासके द्वारा सिद्ध होता है अतः इन्द्रियोंको व्यापाररहित और मनको निर्विकल्प करनेके अभ्यासको बराबर बढ़ाते रहना चाहिए। मन तभी निर्विकल्प (स्थिर) होता है जबकि उसमें राग-द्वेषादिकी-काम-क्रोधमान-माया-लोभ-मोह-शोक-भयादिकी-लहरें न उठे, और ऐसा स्थिर मनवाला योगी साधक ही आत्मतत्त्वके दर्शनका अधिकारी होता है-दूसरा कोई नहीं। जैसा कि पूज्यपादाचार्य के समाधितन्त्र गत निम्न वाक्यसे जाना जाता है
राग-द्वेषादि-कल्लोलैरलोलं यन्मनोजलम् । स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं तत्तत्त्वं नेतरो जनः ॥३५॥
श्रुतके द्वारा भी केवल-सम आत्मबोधकी प्राप्ति आत्मा स्वात्मविचारहीरागी भूतचेतनैः ।
निरवद्यश्रुतेनापि केवलेनेव बुध्यते ॥३४॥ 'अपने आत्माके विचारमें निपुण राग-रहित जीवोंके द्वारा निर्दोष श्रुतज्ञानसे भी आत्मा केवलज्ञानके समान जाना जाता है।'
. व्याख्या-यहाँ आत्मा एक दूसरे मार्गसे भी अपने शुद्धस्वरूपमें जाना जाता है इसका निर्देश है। वह मार्ग है निर्दोष श्रुतज्ञानका और उस मार्गसे जाननेके अधिकारी हैं वे आत्मविचारमें निपुण विज्ञजन जिनका आत्मा प्रायः रागादिसे रहित हो गया है। यहाँ भी
आत्माका साक्षात् अनुभव करनेवालेके लिए राग-द्वेषादिसे रहित होनेकी बात मुख्यतासे कही गयी है। यदि मन राग-द्वेषादिसे आकुलित है तो कितना भी श्रुताभ्यास किये जाओ उसके द्वारा आत्मदर्शन नहीं बन सकेगा। आत्मदर्शनकी पात्रताके लिए राग-द्वेषादिसे रहित होना आवश्यक है-मार्ग कोई भी हो सकता है : इन्द्रिय मनके व्यापारको रोककर देखना अथवा निर्मल भावश्रुतज्ञानके द्वारा देखना।
जो भाव श्रुतज्ञानके द्वारा आत्माके केवल शुद्ध स्वरूपका अनुभव करते हैं उन्हें 'श्रुतकेवली' कहा जाता है जैसा कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य के निम्न वाक्यसे प्रकट है
जो हि सुएणहिगच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पईवयरा ॥९॥
-समयसार। १. इन्द्रियाणां प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च मनः प्रभु । मन एवं जयेत्तस्माज्जिते तस्मिन जितेन्द्रियः ॥७६॥ -रामसेन,तत्त्वानुशासन । २. आ निरवद्य।
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