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योगसार-प्राभृत
[ अधिकार १
मतिज्ञानको अभिनिवोधिक, मति-अज्ञानको कुमति और श्रुत- अज्ञानको कुश्रत भी कहते हैं; जैसा कि पूर्वोद्धृत पंचास्तिकायकी गाथा ४१ से जाना जाता है । विभंगज्ञानको आमतौरपर कुअवधिज्ञान भी कहा जाता है। आत्मा जो स्वभावसे सर्वात्मप्रदेशव्यापी शुद्ध ज्ञानस्वरूप है वह अनादिकालसे ज्ञानावरणाच्छादितप्रदेश हो रहा है और उस आवरणके मतिज्ञानावरणादि पाँच मुख्यभेद हैं । मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे प्रादुर्भूत स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियोंमें से किसी इन्द्रिय तथा मनके अवलम्बन सहयोग से युक्त जिस ज्ञान द्वारा कुछ मूर्त-अमूर्त द्रव्यको विशेष रूपसे जाना जाता है उसे 'मतिज्ञान' तथा 'अभिनिबधिक ज्ञान' कहते हैं । श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे उद्भूत और अनिन्द्रिय मनके अवलम्बन-सहयोग से युक्त जिस ज्ञानके द्वारा कुछ मूर्त-अमूर्त द्रव्यको विशेष रूप से जाना जाता है उसे 'श्रुतज्ञान' कहते हैं । अवधिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे उद्भूत जिस ज्ञान द्वारा कुछ मूर्त द्रव्योंको विशेष रूपसे साक्षात् जाना जाता है उसका नाम 'अवधिज्ञान' है । मन:पर्यय ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे उद्भूत जिस ज्ञानके द्वारा परमनोगत कुछ मूर्त द्रव्योंको विशेष रूपसे साक्षात् जाना जाता है उसे 'मन:पर्ययज्ञान' कहते हैं । ज्ञानावरण कर्मके सम्पूर्ण आवरणके अत्यन्त क्षयसे प्रादुर्भूत हुए जिस ज्ञानसे सम्पूर्ण मूर्त-अमूर्तरूप द्रव्य समूहको विशेष रूपसे जाना जाता है उसे 'केवलज्ञान' कहा जाता है और वह स्वाभाविक होता है। मिथ्यादर्शनके उदयको साथमें लिये हुए जो अभिनिबोधिक ज्ञान है उसे ही 'कुमतिज्ञान', जो श्रुतज्ञान है उसे ही 'कुश्रुत ज्ञान' और जो अवधिज्ञान है उसे ही 'विभंगज्ञान' कहते हैं ।
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केवलज्ञान दर्शनादिके उदयमें कारण
उदेति केवलज्ञानं तथा केवलदर्शनम् । कर्मणः क्षयतः सर्व क्षयोपशमतः परम् ||१०||
'केवलज्ञान तथा केवलदर्शन कर्मके क्षयसे- - ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण अथवा विवक्षित कर्मसमूह के विनाशसे - उदयको प्राप्त होता है- पूर्णरूपसे विकसित होता है । शेष सब ज्ञान तथा दर्शन उक्त आवरणों अथवा विवक्षित कर्म समूहके क्षयोपशमसे—क्षय उपशम रूप मिली-जुली अवस्थासे - उदयको प्राप्त होते हैं ।
व्याख्या - पूर्व के दो पद्योंमें उपयोगके जिन बारह भेदोंका नामोल्लेख है उनमें से केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो उपयोग अपने-अपने प्रतिपक्षी कर्मके क्षयसे आत्मामें उदित, आविर्भूत अथवा विकसित होते हैं । केवलज्ञानको आवृत-आच्छादित करनेवाला प्रतिपक्षी कर्म केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनको आवृत-आच्छादित करनेवाला प्रतिपक्षी कर्म केवलदर्शनावरण है। इन दोनों आवरणों का क्षय मोहकर्मका क्षय हुए बिना नहीं बनता और आवश्यक कर्मोंके क्षयके साथ अन्तराय कर्मका क्षय भी अविनाभावी है, अतः मोह और अन्तराय कर्मका क्षय भी यहाँ 'कर्मणः क्षयतः' पढ़ोंके द्वारा विवक्षित है । इसीसे मोक्षशास्त्र ( तत्त्वार्थ सूत्र ) में 'मोहक्षयात् ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलं ' इस सूत्र के द्वारा मोहके क्षयपूर्वक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मोंका क्षय होनेसे केवलज्ञान तथा केवलदर्शनका आविर्भाव निर्दिष्ट किया है। शेप चक्षुदर्शनादि दश उपयोगोंका जिन्हें 'परं सर्वं ' पद्योंके द्वारा उल्लेखित किया है, आत्मामें आविर्भाव विवक्षित कर्मके क्षयोपशमसे होता है । वे विवक्षित कर्म चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, मतिज्ञानावरण,
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