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योगसार-प्राभृत
[अधिकार १ होनेपर क्षायिक, उपशमको प्राप्त होनेपर औपशमिक, क्षयोपशमको प्राप्त होनेपर क्षायोपशमिक, इस तरह तीन प्रकारका होता है। उन तीनों सम्यक्त्वोंमें भी क्षायिक सम्यक्त्व साध्य है और शेष दो उसके साधन हैं।'
व्याख्या-जिस सम्यक्त्वके स्वरूपका पिछले पद्यमें उल्लेख है उसके तीन भेदोंका उनके कारणों-सहित इन पयोंमें निर्देश है। सम्यक्त्वके वे तीन भेद क्षायिक, औपशमिक, और क्षायोपशमिक हैं । दर्शनमोहकी तीन-मिथ्यात्व, मिश्र तथा सम्यकप्रकृति और चारित्र मोहकी चार-अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, इस प्रकार मोहकमेकी सात प्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिक, उपशमसे औपशमिक और क्षयोपशमसे क्षायोपमिक सम्यक्त्वका उदय होता है। इन तीनोंमें क्षायिक सम्यक्त्व मुख्य है, स्थायी है और इसलिए साध्य एवं आराध्य है। शेष दोनों सम्यक्त्व साधनकी कोटिमें स्थित हैं-उनके सहारे क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त किया जाता है।
आत्मा और ज्ञानका प्रमाण तथा ज्ञानका सर्वगतत्व 'ज्ञानप्रमाणमात्मानं ज्ञानं ज्ञेयप्रमं विदुः।
लोकालोकं यतो ज्ञेयं ज्ञानं सर्वगतं ततः॥१६॥ 'जिनेन्द्रदेव आत्माको ज्ञानप्रमाण-ज्ञान जितना और ज्ञानको ज्ञेयप्रमाण-ज्ञेय जितना बतलाते हैं। ज्ञेय चूंकि लोक-अलोकरूप है अतः ज्ञान सर्वगत है सारे विश्व में व्याप्त होनेके स्वभावको लिये हुए है।'
व्याख्या-'सम-गुण-पर्यायं द्रव्यम्' इस सूत्रके अनुसार द्रव्य गुण तथा पर्यायके समान होता है। पर्यायदृष्टिसे आत्मा जिस प्रकार स्वदेह-परिमाण है, गुण-दृष्टिसे उसी प्रकार स्वज्ञानपरिमाण है। ज्ञानको यहाँ बिना किसी विशेषणके प्रयुक्त किया है और इसलिए ज्ञान यदि क्षायिक है तो आत्मा क्षायिकज्ञान-परिमाण है, ज्ञान यदि क्षायोपशमिक है तो आत्माको उस क्षायोपशमिकज्ञान-परिमाण समझना चाहिए। परन्तु यहाँ 'ज्ञान' पदके द्वारा मुख्यतः वह ज्ञान विवक्षित है जो पूर्णतः विकसित अथवा क्षायिक (केवल) ज्ञान है, तभी वह लोकालोकको अपना साक्षात् विषय करनेवाला 'ज्ञेयप्रमाण' हो सकता है । असाक्षात् (परोक्ष) रूपमें लोकालोकको विषय करनेकी दृष्टिसे स्याद्वाद-नय-संस्कृत श्रुतज्ञानको भी ग्रहण किया जा सकता है। आत्माको ज्ञान-प्रमाण कहा है, ज्ञानसे बड़ा या छोटा आत्मा नहीं होता। और यह ठीक ही है: क्योंकि ज्ञानसे आत्माको बड़ा माननेपर आत्माका वह बढ़ा हुआ अंश ज्ञानशून्य जड़ ठहरेगा और तब यह कहना नहीं बन सकेगा कि आत्मा ज्ञानस्वरूप है अथवा ज्ञान आत्माका गुण है जो कि गुणी (आत्मा) में व्यापक होना चाहिए। और ज्ञानसे आत्माको छोटा माननेपर आत्मप्रदेशोंसे बाहर स्थित (बढ़ा हुआ) ज्ञानगुण गुणी ( द्रव्य ) के आश्रय बिना ठहरेगा और गुण गुणी ( द्रव्य ) के आश्रय बिना कहीं रहता नहीं; जैसा कि 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' गुणके इस मोक्षशास्त्र-( तत्त्वार्थ सूत्र-) वर्णित लक्षणसे प्रकट है। अतः आत्मा ज्ञानसे बड़ा या छोटा न होकर ज्ञान-प्रमाण है इसमें आपत्तिके लिए तनिक भी स्थान नहीं है।
१. आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमदि। णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ॥२३॥
-प्रवचनसार
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