________________
प्रस्तावना
२३
पं० (वर्तमान डॉक्टर ) कस्तूरचन्दजीसे मालूम हुआ, जिन्होंने जयपुर के सब शास्त्रभण्डारों की सूचियाँ तैयार की हैं- और भी बाहरके किसी शास्त्र भण्डारसे उन्हें इस ग्रन्थकी प्राप्ति नहीं हुई, ऐसा दरियाफ़्त करनेपर मालूम पड़ा ।
तीसरी प्रति ब्यावर के ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवनसे प्राप्त हुई, जिसे पं० प्रकाशचन्दजीने उक्त भवन से लेकर मेरे पास भेजने की कृपा की थी और मैंने उसपर - से १४ दिसम्बर १९६३ को तुलनात्मक नोट्स लिये थे । इस कृपाके लिए मैं उक्त पण्डितजी तथा सरस्वतीभवन दोनों का आभारी हूँ। यह प्रति देशी स्यालकोटी - जैसे कागजपर लिखी हुई है, जिसकी पत्र संख्या २५ है, प्रथम पत्रका पहला पृष्ठ खाली है, पत्रके प्रत्येक पृष्ठपर २ पंक्तियाँ और प्रति पंक्ति अक्षर संख्या प्रायः ३२ से ४० तक है। यह प्रति कोटा नगर में पं० दयाराम के द्वारा, जिन्होंने अपना कोई परिचय नहीं दिया, वैशाख शुक्ल एकादशी संवत् १७५९ को लिखकर समाप्त हुई है; जैसा कि प्रतिके निम्न अन्तिम अंशसे जाना जाता है -
" इत्यमितगतिकृत योगसार तत्त्वप्रदीपिका नवाधिकार समाप्तः ॥
संवत् १७५९ वर्षे वैशाख शुक्लैकादश्यां कोटानगरे लि० पं० दयारामेन ॥"
इस प्रतिकी लिखावट अच्छी साफ है; परन्तु बहुत कुछ अशुद्ध है । कितनी ही जगह अक्षर छूटे हैं; अन्यथा भी लिखे गये हैं, व त्र, श स आदिका ठीक भेद नहीं रखा गया । फिर भी इस प्रतिमें कुछ पाठ ऐसे मिले हैं जो मुद्रित प्रतिकी अपेक्षा शुद्ध हैं। मोटी अशुद्धियाँ अधिक होनेके कारण उनका नोट नहीं लिया गया। अधिकारों के नाम इसमें 'जीवाधिकारः', 'अजीवाधिकारः' आदि रूपसे प्रत्येक अधिकारके अन्तमें दिये हैं ।
इस प्रति तथा आमेरकी प्रथम प्रति ( नं०.९३६ ) के अन्त में 'योगसार' के अनन्तर 'तत्त्वप्रदीपिका' नामका प्रयोग देखकर मुझे यह सन्देह हुआ था कि शायद इस ग्रन्थपर 'तत्त्वप्रदीपिका' नामकी कोई टीका लिखी गयी है और उस टीकापर से यह प्रति उद्धृत की गयी है, इसीसे 'तत्त्वप्रदीपिका' का साथ में नामोल्लेख हुआ है, जिसके अन्तका 'यां' शब्द छूट गया है, जो सप्तमी विभक्तिका वाचक था और उससे 'योगसारकी तत्त्वप्रदीपिका टीका में नवमा अधिकार समाप्त हुआ ऐसा अर्थ हो जाता है । अतः मैंने बहुत-से दिगम्बरश्वेताम्बर भण्डारोंमें पूछ-ताछ आदिके द्वारा उसकी खोज की, परन्तु कहीं से भी उसकी उपलब्धि नहीं हो सकी। दक्षिण कन्नड प्रान्तके भण्डारोंमें तो यह मूल ग्रन्थ भी नहीं है; जैसा कि पं० के० भुजबली शास्त्री द्वारा संकलित एवं सम्पादित और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित " कन्नड प्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची" से जाना जाता है। शास्त्रीजीको स्वतः प्रेरित करनेपर भी यही पता चला कि इस ग्रन्थकी कोई प्रति उधरके शास्त्र भण्डारों में नहीं है । दिल्ली, अजमेर, आरा, आगरा, सोनागिर, कोड़िया गंज, काँधला, कैराना, प्रतापगढ़, रोहतक, श्रीमहावीरजी, सहारनपुर, केकड़ी, एटा आदि के शास्त्र भण्डारोंमें भी इसकी कोई हस्तलिखित मूल प्रति नहीं है। श्री डॉ० वेलनकर ने 'जिनरत्नकोश' में इसे 'योगसार' नाम से उल्लेखित किया है और वीतराग अमितगति कृत लिखा है, परन्तु इसकी किसी हस्तलिखित प्रतिका कोई उल्लेख नहीं किया- मुद्रित प्रतिका ही उल्लेख किया है और उसे सनातन जैन ग्रन्थमाला कलकत्ता में नं० १६ पर प्रकाशित व्यक्त किया है। ऐसी स्थिति में ग्रन्थ-नाम के साथ 'तत्त्वप्रदीपिका' नामकी योजनाका रहस्य अभी तक अन्धकारमें ही चला जाता हैहल होने में नहीं आया ।
एक चौथी प्रतिका पता मुझे अपनी उस नोटबुक से चला जिसमें बहुत वर्ष हुए मैंने सेठ माणिकचन्द हीराचन्दजी बम्बई के रत्नाकर पैलेस चौपाटी स्थित शास्त्र भण्डारके प्रशस्ति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org