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विषय-सूची किस केवलीकी कब धर्मदेशना होती है १३७ उक्त ध्यानकी बाह्य सामग्री ज्ञान किस प्रकार आत्माका स्वभाव है १३८ बद्रिके त्रेधा संशोधकको ध्यानकी प्राप्ति १५. आत्माका चैतन्यरूप क्यों स्वकार्य में विद्वत्ताका परम फल आत्मध्यानरति १५५ प्रवृत्त नहीं होता
१३८ मढचेतों और अध्यात्मरहित पंडितोंका प्रतिबन्धकके बिना ज्ञानी ज्ञेय-विषयमें
संसार क्या ?
१५१ अज्ञ नहीं रहता
१३८ ज्ञानबीजादिको पाकर भी कौन सद्ज्ञानीके देशादिका विप्रकर्प कोई प्रति- ___ ध्यानकी खेती नहीं करते वन्ध नहीं
१३९ भोगासक्ति में ध्यान-त्यागी विद्वानों के ज्ञानस्वभाव के कारण आत्मा सर्वज्ञ- मोहको धिक्कार
१५२ सर्वदर्शी
मोही जीवों-विद्वानों आदिकी स्थिति १५२ केवली शेप किन कर्मों को कैसे नष्ट कर ध्यान के लिए तत्त्वश्रुतिकी उपयोगिता १५३ निवृत्त होता है.
१४० भोगबुद्धि त्याज्य और तत्त्वश्रुति ग्राह्य १५३ शुलध्यानसे कर्म नहीं छिदता. ऐसा ध्यानका शत्रु कुतर्क त्याज्य
१५४ वचन अनुचित १४१ मोक्षतत्त्वका सार
१५४ सखीमत निवृत्तजीव फिर संसार में नहीं। आता
१४१ ८. चारित्राधिकार कर्मका अभाव हो जानेसे पुनः शरीरका । ग्रहण नहीं बनता
१४२ मुमुक्षुको जिनलिङ्ग-धारण करना योग्य १५६ जानको प्रकृतिका धर्म मानना असंगत १४२ जिनलिङ्गका स्वरूप
१५ झानादिगुणोंके अभावमें जीवकी व्यव
जिन-दीक्षा देनेके योग्य गुरु और स्थिति नहीं बनती
१४३ श्रमणत्वका प्राप्ति बिना उपायके बन्धको जानने-मानसे -श्रमण के कुछ मूलगुण __कोई मुक्त नहीं होता
१४३ मूलगुणों के पालनमें प्रमादी मुनि छेदोपजीवके शुद्धाशुद्धकी अपेक्षा दो भेद १४४
स्थापक
श्रमणोंके दो भेद सूरि और निर्यापक १५८ शुद्ध-जीपको अपुनर्भव करनेका हेतु १४५
चारित्रमें छेदोत्पत्ति पर उसकी प्रतिक्रिया १५२ मुक्तिमें आत्मा किस रूपसे रहता है. १४५ ध्यानका मुख्य फल और उसमें यत्नकी
विहारका पात्र श्रमण
१५९ प्रेरणा
किस योगीके श्रमणताकी पूर्णता होती है १६० ध्यान-मर्मज्ञ योगियोंका हितरूप वचन १४६ निर्ममत्व प्राप्त योगी किनमें राग नहीं परब्रह्मको प्राप्तिका उपाय
रखता
१६० आत्मा ध्यानविधिसे कर्मों का उन्मूलक अशनादिमें प्रमादचारी साधुके निरन्तर कैसे ?
हिंसा
१६१ विविक्तात्माका ध्यान अचिन्त्यादि फलका यत्नाचारीकी क्रियाएँ गुणकारी, प्रमादीदाता
१४७ की दोपकारी उक्त ध्यानसे कामदेवका सहज हनन १४८ पर-पीडक साधुमें ज्ञानके होते हुए भी वाद-प्रवादको छोड़कर अध्यात्म-चिन्तन- चारित्र मलिन की प्रेरणा
१४८ भवाभिनन्दी मुनियोंका रूप विद्वानों को सिन्डिके लिए सदुपाय कर्तव्य १४८ भवाभिनन्दियों द्वारा आदत लोकपंक्तिअध्यात्म-ध्यानसे भिन्न सदुपाय नहीं १४६ का स्वरूप
१६३
श्रमणत्वकी प्राप्ति
१५७
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