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प्रथमः] भाषाटीकासहितः।
अनुक्तमपि पाकादौ धात्वादि प्रक्षिपेत्सुधीः।। चन्द्रनाभ्यादि तद्वच्च यथाविभवमर्पयेत् ॥ १० ॥ नाभ्याऽजिते तु संस्थाप्य संपुटे तन्महौषधम् । यदि स्याद्राजदृग्योग्यमिति वैद्यवरा विदुः ॥ ११ ॥ पाकमें नहीं भी कहे धात्वादि चन्द्रोदय, वङ्ग, अभ्रक आदि अपने अन्दाजसे जरूर डाले, भीमसेनी कपूर और कस्तूरी आदिशब्दसे अम्बर, सोने, चांदीके वर्क आदिभी डालने चाहिये । तदनन्तर उसको किसी पात्रमें निकाललेवे, कतली जमानी होवे तो किसी थाली में उतारकर जमावे उनमें सोने या चांदीके कोइतासे तबक लगाकर कतली काटकर रखलेवे तो पाक राजालोगोंके खाने योग्य बने
और अवलेह बनानी होय तो चासनी कुछ पतली रख और लड्डू बनाने होवें तो कतलीके समान चासनी बनावे परन्तु उसको कडाहीमेंही कौंचेसे चलाकर गाढी करलेवे ॥ १० ॥ ११ ॥
सुगन्धितैलाचितभाजने वैस्थाप्योऽवलेहः किल राजयोग्यः । वर्षासु वैद्याः प्रवदन्ति पाकलेहादिकं नो बहु तत्प्रकुर्यात् ॥ १२ ॥ मितं कृतं द्वित्रिदिनान्तरालं स्थाप्यं सुधर्मे झवलेहकादि । वर्षाऋतौ यत्नविवर्जितं तद्भवेत्तु जुष्टं किल जन्तुकीटः ॥ १३ ॥ सुगन्धवाले और चिकने पात्रमें अवलेह को रखना चाहिये । वर्षा ऋतुमें पाकका बनाना श्रेष्ठ है और ऋतुमें अवलेह, कदाचित् वर्षा ऋतुमें अवलेह बनानी होय तो थोडी बनावे बहुत न बनाये और उसको बनाकर दो तीन दिन धूपमें रखकर पीछे उसके मुखको यत्नपूर्वक बाँधे कि, जिसमें कोई जीव नजा सके और धूल आदि न पडे,
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