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( २३४ )
योग चिन्तामणिः ।
[ मिश्राधिकारः
क्षिप्त्वा क्षिप्त्वा चातुर्थीशमयोदय प्रचालयेत् ॥ १॥ ततो द्वियाममात्रेण वङ्गभस्म प्रजायते । प्रमेहदाहपाण्डुनं पुष्टिकान्तिबलप्रदम् ॥ २ ॥
मिट्टीके ठीकरेमें रांगेको गलावे इमली, पीपलकी छालका चूर्णं चौथाई डालकर लोहेकी कलछी से चलावे तो दो प्रहरमें रांगकी भस्म हो जावेगी । प्रमेह, दाह पांडुरोगको दूर करे और पुष्टि कान्ति बली देनेवाली है ॥ १ ॥ २ ॥ सीकमारणविधिः । अश्वस्थचिचात्वग्भस्म भस्मतुल्या मनःशिला । जम्बीरैरारनालैश्च पिष्ट्वा रुवा पुटे पचेत् ॥ १ ॥ स्वांगशीतं पुनः पिट्वा विंशत्यंशशिलात्मकैः । नागः सिंदूरवर्णाभो म्रियते सर्वकार्य कृत् ॥ २ ॥
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पीपल की छाल इमलीकी छाल इनकी भस्म करलेवे आर शीशेकी बराबर मनशिल लेय जंभीरीके रसमें और कांजीके रसमें पीसकर शीशेके पत्रके ऊपर लेप करे और अग्नि देय जब ठंढा होजाय तब निकाल लेय, फिर वीस भाग मनसिल संपुट कर फूंके, जब सिन्दूरकासा रंग होजाय तब यह रस सब कार्यो को करे ॥ १ ॥ २ ॥
सारमारणविधिः ।
शुद्धं लोहभवं चूर्ण पातालगरुडीरसैः । गोमूत्र त्रिफलाक्काथैर्मर्दयित्वाऽग्निना पुटेत् ॥ १ ॥ अर्कदुग्धैः पुनः पिट्वा पुटेद्यामचतुष्टयम् । पुनः कन्यारसैः पिट्वा पचेद्द्वजपुटेन च ॥ २ ॥
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