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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( २३५)
पुटत्रयं कुमार्याश्व अर्कदुग्धे पुटत्रयम् । एवं सप्तपुटैर्मृत्युं लोहं चूर्णमवाप्नुयात् ॥ ३ ॥ यथा यथा प्रदीयन्ते पुटास्तु बहवों यतः । तथा तथा विवर्द्धन्ते गुणाश्चास्य सहस्रशः ॥ ४ ॥ तावछोहं पुढे देयं यावच्चूर्णे कृते जले | निस्तरंगो लघुस्तोये समुत्तरति हंसवत् ॥ ५ ॥ तावद्विचूर्णयेदेतद्यावत्कज्जलसन्निभम् । करोति निहितं नेत्रे नैव पीडां मनागपि ॥ ६॥ आयुः प्रदाता बलवीर्यकर्ता रोगप्रहर्त्ता मदनस्य कर्त्ता । अयःसमानं नहि किंचिदन्यद्रसायनं श्रेष्ठतमं हितं च७ शुद्ध लोहके चूर्णको छिरहटीके रसमें मर्दन करे और गोमूत्र, त्रिफला काढेमें मर्दन करे, अग्निदेय, फिर आक के दूधमें चार प्रहर भावना देवे फिर ग्वारपाठेके रस में पीसकर गजपुटमें फूंके, फिर ग्वारपाठे में तीन भावना देय और अर्कदूधमें ऐसे सात पुट देने से लोहा मरता है, और ज्यों २ जियादह पुट देय त्यों २ गुण बढते जाते हैं, वैद्य near पुट देता रहे कि, जबतक जलपर तैरे नहीं और जबतक काजलके समान न होय तबतक चूर्ण करता रहे तथा नेत्रमें लगानेपर थोडी भी पीडा न करे । यह आयुका देनेवाला है वीर्य बढावे, रोगोंका नाश करे, कामोद्दीपन करे, लोहके समान दूसरा रसायन नहीं है, श्रेष्ठ और हितकारक है ॥ १-७ ॥
मण्डूरकरणम् ।
अक्षांगारे धमेत्किहूं लोहजं तद्भवां जलैः । सिंचयेत्तप्ततप्तं च सप्तवारं पुनः पुनः ॥ १ ॥
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