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(२७२) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकार:भिवृद्धिः प्रभवेन्नराणां रामा सुवश्या भवतीह लोके । त एव धन्या मनुजा नरेन्द्रा द्राक्षासवं ये किल सेवयन्ति ॥ ९॥ मुनक्का सौ पल, मिश्री ४०० पल, बेरकी जड ५० पल, धायके फूल २६ पल, सुपारी १० पल, लौंग, १० पल, जावित्री १० पल, जायफल १० पल, तज, इलायची, तेजपात ४० पल, सोंठ, मिरच, पीपल ३० पल, नागकेशर १० पल, मस्तंगी १० पल, कशेरू १० पल, अकरकरा १० पल, कूठ १० पल, इन
औषधियोंसे चौगुना पानी मिट्टीके बरतन में भरकर दवा डालकर जमीनमें गाड देवे और १४ दिनके बाद निकालकर भभकेमें चढावे और मन्दाग्निसे सिद्ध कर केशर कस्तूरी डाल कांचके पात्रमें रख देवे । जब तीन दिन हो जायें तब बलप्रमाण देखकर सबेरे एक पल पीवे और मध्याह्नमें दो पल लेवे और सायंकालमें चार पल पीवे । गरिष्ठ तथा चिकना आहार सेवन करे तो वीर्यको बढावे, स्त्रियोंको वशीभूत कर । लोकमें वे लोग धन्य हैं, जो द्राक्षासवका सेवन करते हैं ॥ १-९॥
द्राक्षारिष्टम् । द्राक्षातुलाई द्विद्रोणे जलस्यापि पचेत्सुधीः । पादशेषेकपात्रे च पूतशीते विनिक्षिपेत् ॥ १ ॥ गुडस्य द्वितुलां तत्र त्वगेला पत्रकेशरम् । प्रियंगुर्मरिचं कृष्णा विडङ्गं चेति चूर्णयेत् ॥२॥ पृथक्पलोन्मिते गैस्ततो भाण्डे निधापयेत् । समन्ततो हि दूषित्वा पचेज्जातरसं ततः ॥ ३॥ उरःक्षतं क्षयं इंति कास श्वासगलामयान् ॥४॥
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