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भाषाटीकासहितः। अथ कर्मविपाकप्रकरणम् ।
अरुण उवाच-कथं कार्यो दिवानाथ प्रश्नकालस्य
यो विधिः । तत्तत्कर्मविमोक्षाय तत्त
निष्कृतिसूचकः॥१॥ श्रीसूर्य उवाच-आधिव्याधिमतो जन्तोविरक्तिर्जायते
यदा । दैवज्ञं स तदा प्राप्य निज- दुःखं निवेदयेत् ॥२॥ श्रीसूर्यनारायणसे अरुण सारथि प्रश्न करते है. हे दिवानाथ ! प्रश्नके समय किस विधिसे कर्मविपाकको देखे सो कहो । इस वचनको सुनकर श्रीसूर्यनारायण बोले कि, आधि (मनके विकार ) व्याधि (देह के रोग) इनसे जब मनुष्यका चित्त उपरामको प्राप्त होय, तब दैवज्ञ (ज्योतिषी) के पास जाकर अपने दुःखको निवेदन करे. अथवा अपने घरपर आदरपूर्वक ज्योतिषीको बुलाकर श्रद्धासे विधिपूर्वक पूजन कर तथा पंडितोंको बुलाकर शुभस्थानमें अपने इष्टदेवका पूजन करे और प्रश्रकर्ता ज्ञानभास्कर पुस्तकका गंधपुष्पादिसे और बहुत द्रव्यसे पूजन करे, ब्राह्मणोंको दान देवे तथा सुन्दर सोना १६ मासे और दो गौ इनको लाल कपडेसे भूषित कर पीछे इस मंत्रको पढे ॥१-२॥
भगवन्देवदेवेश कर्मसाक्षिलगत्प्रभो । प्राभृतं प्राग्बिभम्येव तुभ्यं पुस्तकरूपिणे ॥१॥ प्रभूतेनामुना तुष्टः कर्म सम्यक् प्रकाशय । तत्तदुःखौघनाशाय दुष्कृतस्य च मे प्रभो ॥२॥
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