Book Title: Yog Chintamani Satik
Author(s): Harshkirtisuri
Publisher: Gangavishnu Shrikrishnadas

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Page 335
________________ (३१४) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारः-- धूनी देवे । यह ब्रह्माजीकी बनाई धूप सर्वभूतोंको नाश करती है ॥१॥ अथ तकसेवनम्-योग्यायोग्याश्च । यथा सुराणाममृतं प्रधान तथा नराणां भुवि तक्रमाहुः । न तकदग्धाः प्रभवंति रोगा न तकसेवी व्यथते कदाचित् ॥ १ ॥ शशिकुन्दहिमोः ज्वलशंखनिभं परिपक्ककपित्थसुगंधिरसम् । युवतीकर निर्मलनिर्मथितं पिव मानव सर्वरुजापहरम्॥२॥ शीतकालेऽग्निमाये च कफोच्छेदे तथामये। बद्धकोष्ठे च दुष्टेऽनावझेगुल्मेऽथवामये ॥ ३ ॥ शस्तं भुक्ते च तकं स्यादमीषां सर्वदा हितम् । सर्वकाले प्रशस्तं तु अजाजीलवणान्वितम् ॥४॥ जैसे देवताओंको अमृत प्रधान है, वैसे ही मनुष्योंको पृथ्वीपर छाछ कही है । छाछ सेवन करनेवालेको कदाचित् रोग नहीं होते और छाछ पीनेवाला कभी दुःखी नहीं होवे, चन्द्रमा और कुन्द तथा बर्फ वा शंखके समान उज्ज्वल पके कैथके रसकी गंधसे मिला तथा स्र के हाथसे मथा ऐसे मढेको सर्व रोगनाशनार्थ हे मनुष्य ! तू पी । शीत कालमें, मन्दाग्निके रोगमें, कफके विकारमें, बद्धकोष्ठ, बवासीर, गोला इन रोगोंपर छाछ पीना सदैव हित है । जीरा और निमक मिलाकर छाछ पीना सदैव श्रेष्ठ है ॥ १-४ ॥ इति तकगुणाज्ञात्वा न दद्याद्यस्य तं शृणु । क्षये शोषे तथा तक्रं नोष्णकाले शरत्सु च ॥५॥ न मृच्छांभ्रमतृष्णासु तथा पैत्तिकरोगके । न शस्तं तक्रपानं च करोति विषमान गदान॥६॥ Aho! Shrutgyanam

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