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(३२०) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारःहरस्य भवने जाता हरिता च स्वभावतः। हरते सर्वरोगांश्च तेन ख्याता हरीतकी ॥२॥ ग्रीष्मऋतुमें मुडके संग, वर्षाऋतुमें सैंधवनिमकके संग, शरऋतु, भावलोके साथ. हेमंतऋतुम सोंठके संग, शिशिर ऋतुमें पीपलके संग और वसन्तऋतुमें शहदके संग हरड खानेसे जैसे सर्वरोग नाश होते हैं इस प्रकार हे गजन् ! तेरे शत्रु नष्ट होवें । हरड-हर (शिवजीके) स्थान (कैलास ) में उत्पन्न हुई है स्वभावसेभी हरा रंग है तथा सर्व रोगोंको हरण ( नाश ) करनेवाली है, इस लिये हरीतकी नामसे कही जाती है ॥ १-२॥
कुटकीप्रयोगः। संशर्करामक्षमात्रां कटुकामुष्णवारिणा ।
पीत्वा ज्वरं जयेजन्तुः कफपित्तसमुद्भवम् ॥१॥ मिश्री १ टंक, कुटकी १ टंक इन दोनोंको मिलाकर गरम जसके संग खाय तो ज्वर और कफ पित्तके विकार दूर होवें ॥ १ ॥
अजमोदयोगः। एक एव कुबेराख्यो हन्ति दोषशतत्रयम् । किं पुनस्त्रिभिरायुक्तः शुंठीसैन्धवरामठैः ॥ १॥ एक एव कुबेराख्यः पक्को घृतगुडेन च।... कुर्यादिन्द्रियचैतन्यं हन्ति वातोदराणि च ॥२॥ एक अजमोदही ३०० दोषोंका नाशक है और उसमें सोंठ, सैंधामोन और हींग मिली होवे तो फिर क्याही कहना ? एकही अजमोद मुड और धीमें पका हुआ इन्द्रियोंको चैतन्य करे और वातजन्य उदरके रोगोंको नाश करे ॥ १-२ .
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