Book Title: Yog Chintamani Satik
Author(s): Harshkirtisuri
Publisher: Gangavishnu Shrikrishnadas

View full book text
Previous | Next

Page 340
________________ भाषाटीकासहितः । वर्द्धमानपिप्पली | त्रिवृद्धया पंचवृद्धया वा सप्तवृद्धयाऽथवा कणाम् । पिबेत्पट्वा दशदिनं तास्तथैव प्रकर्षयेत् ॥ १ ॥ एवं विंशदिनैः सिद्धं पिप्पली वर्द्धमानकम् । अनेन पाण्डुवातासकासश्वासारुचिज्वराः ॥ २ ॥ सप्तग: ] ( ३१९ ) तीन वा पांच वा सातसे वर्द्धमान पीपल दशदिन बढावे और दश दिनमें उसी क्रमसे ऐसे घटावे २१ दिन पीवे तो पांडुरोग, वातरक्त, खांसी, श्वास अरुचि, ज्वर उदररोग, बवासीर, क्षय, कफ, वात और उरग्रह ये रोग नष्ट होवें ॥ १-२ ॥ द्राक्षाहरीतकी । अपहरति रक्तपित्तं कण्डूं गुल्मं च पैत्तिकं हन्ति । जीर्णज्वरं शमयति मृद्वीकासंयुता पथ्या ॥ १ ॥ द्राक्षा नियोज्या द्विगुणा शिवायास्तन्कुयित्वा गुठिका विधेया । ग्राह्या द्विकर्षप्रमिता प्रभाते मलग्रहे रोधकबद्धकोष्ठे ॥ २ ॥ दाखको हरड के साथ खाने से रक्तपित्त, खुजली, गोला, पिचके विकार और विषमज्वर इनको दूर करे, दो भाग दाख और एक भाग हरड इन दोनोंको कूटकर गोली बनावे, आट मासे नित्य प्रातःकाल सेवन करे तो मलके बन्ध अरुचि और बद्धकोष्ठको दूर करे ॥ १-२ ॥ हरीतकीयोग्याः । ग्रीष्मे तुल्यगुडां च सैन्धवयुतां मेघागमाडंबरे सार्द्ध शर्करा शरद्यमलया शुंच्या तुषारागमे । पिप्पल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रेण संयोजितां राजन् भक्ष हरीतकीमिव गदा नश्यन्तु ते शत्रवः ॥ १॥ Aho! Shrutgyanam

Loading...

Page Navigation
1 ... 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362