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योगचिन्तामणिः । [ मिश्राधिकारः
खल्वे कज्जलसंकाशं काचकुप्यां क्षिपेत्सुधीः ॥ १ ॥ खपरे वालुकापूर्ण स्थापयेत्तत्र कूपिकाम् । इष्टकां च मुखे दत्त्वा कृत्वा कर्पटमृत्तिकाम् ॥ २ ॥ सप्तविंशतियामैश्च त्रिभिः कूपैर्विपाचयेत् । पश्चादू समायाति रसं ज्ञात्वा विचक्षणः ॥ ३ ॥ हंसपादसमं वर्ण निष्पन्नं रसमादिशेत् । गुंजायुग्मं प्रदातव्यं सितादुग्धानुपानयुक् || ४ || प्रमेहश्वासकासेषु षंढे क्षीणेऽल्पवीर्यके । हरगौरीरसो देयः सर्वरोगप्रशान्तये ॥ ५ ॥ ये क्षीणागतवीर्याश्च कथं सीदन्ति ते नराः । ईश्वरेण त्विदं प्रोक्तं हरगौरीरसायनम् || ६ || एक भाग पारा, दो भाग गन्धक खरल में घोटकर कजली करे, फिर शीशी में डालकर इकट्ठी करे, फिर वालुकायंत्र में रख ऊपर नीचे बालू भरे, बीचमें शीशी रक्खे और पकी ईंटसे मुख बन्द करे और विधिपूर्वक सात कपरोटी कर सत्ताईस प्रहर तीन तीन शीशियों में पकावे, फिर जब ऊपर उड़कर आजाय तब जानो रस बन गया, सिंगरफकासा रंग निष्पन्न रस जानो । दो रत्ती पानमें ले और मिश्री मिलाकर ऊपर से दूध पीवे. यह हरगौरीरस - प्रमेह, श्वास, खांसी, नपुंसकता, क्षीणता, वीर्यक्षय इन सब रोगोंका नाश करता है जिन मनुष्योंका वीर्य क्षीण है वे क्यों दुःख पाते हैं । ईश्वरने उनके लियेही हरगौरिस कहा है ॥ १-६ ॥
रससिंदूरम् ।
सूतकं च समादाय द्विगुणं गन्धकं क्षिपेत् । ततश्च कज्जलीं कृत्वा काचशीश्यां तु धारयेत् ॥ ६ ॥
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