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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( २६९ )
गृह्णीयादथ गुंजिका ज्वरहरं खंडेन संयोजयेत् ॥ १॥ एका त्रित चतुर्थकमिदं वेलाज्वरं नाशयेच्छीतादिज्वर सर्वनाशनकरं भानुर्यथा शर्वरीम् । पथ्यं दुग्धमथापि तन्दुयुतं छागं च शीतं पयः पेयं गव्यमिदं स्वभावज नितं पित्तं जयेद्रोगिणाम् ॥ २ ॥ ज्वराभिभूते षडहे व्यतीते विपक्कदोषे कृतलंघनादिः । यो भेषजं वैद्यवरः प्रयुक्ते निःसंशयं हन्त्यचिरात्स रोगान् || ३ ||
हरताल से आधे शंखके चूरेको ले गोमूत्रमें बुझावै. फिर शुद्ध नीलाथोथा नौ हिस्सा डालदेवे, फिर कुमारीरसके तीन पुट देकर खरल कर टिकिया बनाय शरावसंपुट कर तीन कपडमिट्टी कर गजपुटकी आंच देवे. जब शीतल होजाय तब निकाल लेवे, इसकी मात्रा १ रत्ती या दो रत्ती गरम पानीसे देवे, ऊपरसे खांड पथ्य-दूध, चांवल, बकरीका ठंढा दूध पीवे और जितनी रुचि होय उतना यथेच्छासे दूध पीवे तो पित्तकी शांति करे खांडके संग लेवे तो एकाहिक, तृतीयक, चतुर्थक, वेलाज्वर इन सबका नाश करे और ज्वर होनेपर छः दिन लंघन करे अथवा दोष जबतक न पचे तवतक लंघन करे, पीछे इस औषधिको देवे तो रोग दूर होवे ॥ १-३ ॥
सर्वज्वरे --मृत्युंजयरसः । प्रवालमुक्ताफलवत्रतार सुवर्णताम्राभ्रकसार सीताः । यथोत्तरा वङ्गशिलालनाथा पलोन्मितैः सुतकसप्तभागाः ॥ १॥ चतुश्चतुः शंख कपर्दिकानां सत
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