________________
( २५० ) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारः-- पलमेकं शुद्धतालं कुमारीरसमर्दितम् । शरावसम्पुटे क्षिप्त्वा यामान्दादश तत्पचेत् ॥ ४॥ शुद्ध हरताल १ पल ले कुमारीरसमें मर्दन करे और दो शरावोंमें सम्पुट कर १२ प्रहरकी आँच देवे ॥ ४ ॥
हरितालं कर्षमात्र मर्दितं कन्यकाद्रवैः। सतेलं चायसे पात्रे क्षिप्त्वा मन्दाग्निना पचेत् ॥५॥ एक कर्म हरताल कुमारीरसमें मर्दन कर लोहेके पात्रमें तेल डालकर मन्दाग्नि देवे ॥५॥
नागतांबाविधिः। मयूरपिच्छानादाय ज्वालयेदाज्यसपैः। गुडगुग्गुलमीनोर्णा टंकणं सर्जिका मधु ॥१॥ गुञा च पिप्पली लाक्षाघृतंचैकत्र कारयेत् । धमेत्तदन्धमूषायां नागतानं प्रजायते ॥ २॥ मोरपख ४ सहस्रोंके चन्दा निकाले और मिट्टीक बड़े बर्तनमें डालकर जलावे, फिर दो टंक गुड, सरसा, गूगल, छोटी मच्छी, ऊन, सुहागा, सज्जी, शहद, चिरमिठी, पापल, लाख ये सब बराबर लेकर एक हाथ नीचा गड्ढा खोदे एक ओरमें मोरपंखकी राख रक्खे और ऊपर दवाई डालता जाय और नीचेसे धोकता जाय, जब सब डालचुके और ठंडा होजाय, तब छोटे २ कण बीन लेवे और गलालेवे सो नागतांबा होवे ॥ १-२॥
सुवर्णमाक्षिकशोधनम् । माक्षिकं स्वेदयेत्पूर्व कुलत्थक्वाथयोगतः । अथवा नरमूत्रेण दोलायन्त्रे विशुद्धयति ॥ ॥
Aho! Shrutgyanam