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( १९४) योगचिन्तामणिः। तैलाधिकार:
बधिरा लमजिह्वाश्च विकला मन्दमेधसः । मन्दप्रजा च या नारी या च गर्भ न विदति। कुरण्डमन्त्रवृद्धिश्च येषां तेषामिदं हितम् ॥१०॥ यथा नारायणो देवो दुष्टदैत्यविनाशनः । तथेदं वातरोगाणां तैलं नारायणं स्मृतम् ॥ ११॥ बेल, अरणी, अरल, पाढल, नींबकी छाल, गंधप्रसारणी, असगंध, कटेरी,गंगेरन,गोखरू, सांठ यह सब दस दस पल लेकर ६४ सेर पानीमें
औटावे, जब चौथाई रहजाय तब १०२४ टंक तेल डाले. सौंफ, देवदारु, बालछड, छारछवीला, वच, चन्दन, तगर, कूठ, इलायची, शालपर्णी, माषपर्णी, मुद्गपर्णी, पीलवनी, राना, असगन्ध, सैंधानोन, सोंठ, यह सब दो दो पल ले पीसकर डालदेवे और शतावरीका रस तेलके बराबर अर्थात् चार सेर डाले, बकरी और गायका चौगुना दूध डालकर मंदी २ आंचसे पकावे, जब सिद्ध होजाय तब उतारले, फिर इस तेलको पीवे तथा मर्दन करे, भोजनके प्रथम तेल लेवे । घोडा हाथीके वातगेग तथा मनुष्यके पंगु, पीठभन्न वायु इतने रोग इस तेलके लगानेसे नाश होवें ओर नीचे अंगकी वायु, माथेकी वायु, दन्त शूल, ४ नुस्तम्भ, जाबडास्तम्भ, गल ग्रह, इंद्रियक्षीण, वीर्यनष्ट, ज्वरकरके क्षीण होवे, जीभ फूलना, विकलता, मन्दबुद्धि, स्त्रीके संतान न होय, नलबंधना, आंतोकी वृद्धि आदिक संपूर्ण रोगोंको नाश करता है ॥ १-११॥
जीर्णवरे तापातिदाहादौ च लाक्षादितैलम् । चन्दनांबु नखं वाद्यं यष्टी शैलेयपद्मकम् । मनिष्ठा सरला दारु शय्येला नागकेशरम् ॥१॥
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