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( २३० ) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारः
अष्टाभिर्मरिचैर्युक्ता कृष्णात्रययुता तथा ॥८॥ विलोक्य देया दोषादीनेकैका रसरक्तिका। सर्पिषा मधुना चापि देया पथ्यं च भोजयेत् ॥९॥ मृगांकोऽयं रसो हन्यात्कृशत्वं बलहीनताम् । श्लेष्माणं ग्रहणी कासं श्वासं क्षयमरोचकम् ॥१०॥
अग्निं च कुरुते दीप्तं कफवातानियच्छति ॥ ११॥ २-सुवर्णका भोजपत्रके समान सूक्ष्म पत्र करे और उतनाही पारा डाल कर खरल करे, फिर कचनारका रस, ज्वालामुखीका रस, कलियारीका रस इसमें जबतक पिष्टके समान न हो तबतक मर्दन करे, फिर सोनेसे चौथाई सुहागा डाले, फिर सोनेसे दुगुना मोतियोंका चूर्ण और सबके बराबर गन्धक डालकर मर्दन करे.फिर सबका गोला बनावे फिर उसपर कपडा लपेट पीछे कपरमिट्टी कर सुखा लेवे, जब सूखजाय तब दो शंखोंमें रखकर कपरमिट्टी कर सुखा लेवे, फिर एक हांडीमें ऊपर नीचे नोनभर बीचमें रख संपुट कपरमिट्टी कर सुखा लेवे, फिर खूब आरने उपलों की आंच देवे, जब ठंढा होजाय तब निकालकर गन्धक, पाग बराबर डालकर पूर्वोक्त रीतिसे मर्दन करे, फिर गजपुटकी आंच देवे. जब खूब ठंढा होजाय तब निकाल लेवे । आठ मिरचके योगमें तीन पीपल सयुंक्त दो रत्तीके प्रमाण देवे । जैसा दोष देखे वैसा दे, वा एक रत्ती दे, बलावल देखकर घी, शहद पथ्यमें देवे. यह मृगांकरस कृशता, बलहानि, श्लेष्म, ग्रहणी, खांसी, श्वास, क्षय और अरुचिको दूर करे, अग्निको दीप्त करे और कफ वातका नाश करे ॥ १-११॥
शुद्धं सूतं स्वर्णपत्रं जम्बीरे मर्दयेत्समम् । तयोद्विगुणिता मुक्तास्त्रिभिस्तुल्यं तु गन्धकम् ॥१॥
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