________________
सप्तमः] , भाषाटीकासहितः। (२३१ ) टंकणं गन्धकादधैं सर्व जम्बीरजैवैः। मध यामेन तद्गोलं वस्त्रे बद्धा विपाचयेत् ॥२॥ दोलायन्त्रेण पाताले यामादुद्धृत्य शोषयेत् । ततो मृन्मयभाण्डांतलवणं चांगुलीद्वयम् ॥ ३॥ क्षिप्त्वा तद्धिक्षिपेत्पूर्वगोलक वस्त्रवेष्टितम् ।। लवणैः पूरयेद्भाण्डं मुद्रयित्वा दिनं पचेत् ॥ ४ ॥ चुल्ल्यां क्रमाग्रिना सिद्धो मृगांकोऽयं महारसः । राजरोगनिवृत्त्यर्थ देयो गुंजामितो घृते । दशभिर्मरिचैः सार्दै पिप्पल्या मधुनाऽपि वा ॥५॥
३-शुद्ध पारा और सुवर्णपत्र बराबर ले जम्बीरीके रसमें मर्दन करे, इनमें दूने मोती लेवे और सबके बराबर गन्धक, और गंधकसे आधा सुगाहा ले इन सबको जम्बीरीके रसमें एक प्रहर घोटकर गोला बनावे फिर ऊपर कपडा लपेटकर दोलायंत्र या पातालयंत्रमें पकावे, कांजीमें पकावे, फिर एक प्रहरके बाद सुखावे, फिर मिट्टीके वर्तनमें दो अंगुल नोन नीचे भरकर कपर मिट्टी कर एक दिन चूल्हेपर कम (मन्द, मध्य, तीक्ष्ण ) से आग्नि देवे तो यह मृगांकमहारस सिद्ध होवे । यह यक्ष्मा रोगका नाश करे, एक रत्ती घीके साथ देय अथवा दस मिर्च अथवा पीपल शहदके साथ देवे ॥ १-५॥
राजमृगांकरस। भस्मसूतत्रयो भागा भागैकं भस्म हेमकम् । मृतताम्रस्य भागैकं शिलागन्धकतालकम् ॥ १॥ प्रतिभागद्वयं शुद्धमेकीकृत्य विचूर्णयेत् । वराटं पूरयेत्तेन च्छागीक्षीरेण टंकणम् ॥ २॥
Aho! Shrutgyanam