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(२१०) योगचिन्तामणिः। [तैलाधिकार:जात्यकत्रिवृता निम्ब करंजविषमेव च । कृष्णा छत्रकरोधं च प्रपन्नाटं च संहरेत् ॥२॥ अम्लपिष्टानि सर्वाणि योजयेत्तैलमात्रया। अभ्यंगेन प्रयुंजीत सर्वकुष्टविनाशनः ॥ ३॥ पामाविचर्चिकाकच्छूविसर्प विहितं मतम् । रक्तपित्तोत्थितान्हन्ति रोगानेवंविधान्बहून् ॥४॥ १-सिन्दूर, चन्दन, बाल छड, वायविडंग, दोनों हलदी, प्रियंगु, पदमाख, कूठ, मंजीठ, खैरसार, वच, चमेली, आकका दूध, निसोथ, नीम्बकी छाल, कंजा तेलियापीठा, पीपल, छतोना, छारछबीला, लोध, पमारके बीज इनको एकत्र कर इमली के रसमें पीस तेलमें पकावे, जब सिद्ध हो जाय तब मर्दन करे तो सम्पूर्ण कोढ दूर होवें, और पामा, विचर्चिका, दाद, फोडा तथा रक्तपित्तादि रोग दूर होवें १-४॥ सिन्दूराद्धपले पिष्टं जीरकस्य पलं तथा। कटुतैलं पचत्ताभ्यां सद्यः पामाहरं परम् । वृद्धवैद्योपदेशेन पचेत्तैलं पलाष्टकम् ॥ १॥
२-सिन्दूर ८ टंक, जीरा १६ टंक, सरसोंका तेल ८ पल ले पकावे । इस तेलको मर्दन करनेसे पामा और कुष्ठ दूर होवें ॥ १ ॥
गुंजादितैलम् । गुञ्जामूलं फलं तैलं तोयं द्विगुणितं पचेत् । तस्याभ्यङ्गेन संमर्दैगण्डमालां सुदारुणाम् ॥१॥ चिरमिटीकी जड और फल साथ लेकर तेल और दुगुने पानीमें औटावे जब तैल सिद्ध होजाय तब इसके मर्दन करनेसे कठिन गंडमाला दूर होवे ॥ १ ॥
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